________________
२३०
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १६. स्मरन्नपि श्रीमुनिभिक्षुभारती, निरोद्ध मीशो न बभूव भाणकः । __समुद्रगाम्भीर्यधरा प्रवर्तते, तडाकिका किं कृतपालिकाऽपि सा॥
तब वीरभाणजी मुनिश्री भिक्षु की प्रदत्त-शिक्षा को याद करते हुए भी अपने आपको रोक नहीं सके । क्या चारों ओर पाल से घिरी हुई तलाई समुद्र की गभीरिमा को धारण कर सकती है ?
१७. प्रभञ्जनाङ्गोभवलम्बपुच्छवत्, तदुत्तरं दातुमतीवसत्वरः। अवक् स ॐ ब्रूहि कथं वयं मृषा, त एव सत्या इति संबभाषिवान् ॥
तब वीरभाणजी ने गुरु के सम्मुख हनुमानजी के पूंछ के समान लम्बा-चौड़ा उत्तर देते हुए कहा-'हां, शंकायें निकाल दी हैं।' गुरु ने फिर पूछा-'कहो, कैसे निकाली ?' तब वे बोले-'हम झूठे और वे श्रावक सच्चे।'
१८. पुनः प्रचष्टे यदि संशयो भवेत्, तदा च निष्काशयितुं प्रयत्नता।
नितान्तशङ्कारहिता जिनागमसुमर्मगास्ते तु यथार्थवादिनः ॥ .. - 'उन राजनगरवासी श्रावकों के हृदय में यदि शंकाएं हों तो निकालने के लिए प्रयत्न किया जाए । वे तो नितान्त शंका-रहित हैं। वे जैनागमों के मर्मज्ञ हैं और यथार्थ कहने वाले हैं।'
१९. क्व साधुताऽस्मासु जिनागमोक्तिभिर्मरुस्थले कल्पलतेव पुष्पिता। क्व नोऽस्ति सद्दर्शनदर्शनं निजे, प्रकाशरुद्धाचलगह्वरेष्विव ॥
'जैसे मरुस्थल में कल्पलता पुष्पित नहीं होती वैसे ही कहां है हमारे में जैन आगमों में वर्णित साध्वाचार से मंडित साधुत्व ? जैसे पार्वतीय गुफा में प्रकाश का होना असम्भव है, वैसे ही अपने में कहां है सम्यग् दर्शन ?'
२०. सदा सदोषाशनपानमात्रया, प्रभुज्यते नो मुनितामतल्लिका।
यथा भुजङ्या गरलोग्ररूपया, प्रसङ्गतापातनरोपजीवनी ॥ ____ 'आर्य ! जैसे उग्र विष को धारण करने वाली सर्पिणी अपने निकट में आए हुए मनुष्य के प्राणों का हरण कर लेती है, वैसे ही अपनी यह निरन्तर दोष सहिंत अशन-पान की मात्रा-रूपी सर्पिणी हमारे श्रामण्य का भक्षण करती जा रही है।'
२१. मुनीन् हृदाधाय विनिर्मितानपि, प्रसन्निताः स्थानकभोजनोपधीन् ।
प्रसादयामः प्रजहाम एव न, समस्तभक्ष्यग्निवदेव किञ्चन ॥