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षष्ठः सर्गः
१११. शुभसंविद' मेवमनन्तबलः, प्रकरोति तनोति सुनोति' शिवम् । ज्वर एष यदा परिमुञ्चति मां तदवश्यमृतालपनेच्छुरहम् ।। ११२. ऋतपक्षमुपैत्य यथार्थपथपथिको भविता खलु भावयिता । जिनराज सुभाषितसत्यसुधामभिगम्य मुधान्यविकल्पहरः ॥ ११३. अपरापरवक्त्रविलोकनतामपहाय विभूय निरीहतमः । प्रचिकीर्षुरनन्तर नै जशिवं भवसागरमाशु तितीर्षुरहम् ॥
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(त्रिविशेषकम् )
अनन्त आत्मबली मुनि भिक्षु ने कल्याणमार्ग को उद्भावित करते हुए प्रतिज्ञा के स्वरों में कहा - 'यदि मैं इस ज्वर से मुक्त हो जाता हूं तो अवश्य ही सत्य को प्रकाशित करूंगा ।'
'मैं सत्यपक्ष को प्राप्त कर यथार्थपथ का पथिक बनूंगा और अन्यान्य व्यक्तियों को भी यथार्थबोध दूंगा । मैं जिनेश्वर देव की वाणी रूप सत्यामृत को पीकर अन्यान्य सारे विकल्पों को छोड़ दूंगा ।'
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'मैं परमुखापेक्षिता को छोड, निस्पृह बनकर केवल अपने कल्याण की ही कामना को लेकर संसार - समुद्र को शीघ्र तैरने का इच्छुक हूं ।'
११४. तत एवमऽदभ्र शुभाशयतो, लघुकर्मवतः खलु तस्य मुनेः । रुचि रोचनतारुचिरैरचिरात्, पटलं हृदयस्य विमुक्ततरम् ॥
ऐसी अत्यंत निर्मल भावना से उस लघुकर्मा महामुनि का हृदय पटल अत्यधिक प्रसन्नता से शीघ्र ही विकसित हो गया ।
११५. सदलौकिकलोकयदान्तरिके, नयने च निरावरणे लसिते । अनुभूतिविभूति विभूतिभरैः प्रतिदेशमसूतविकाशमयम् ॥
इस शुभ्र अलौकिक आलोक से अन्तर्-नयन खुल गए तथा अनुभूति की संपदा से उनकी आत्मा का प्रदेश-प्रदेश विकसित हो गया, जगमगा उठा ।
११६. किमपूर्वरविः किमपूर्वशशी, किमपूर्व महोदयदीपरुचिः । ज्वलिताज्वलनस्तमसां तमसाम् ॥
उदगादयमत्र तथा सततं
ऐसा वितर्क हुआ कि क्या आन्तरिक पापांधकार का विनाश करने के लिए कोई अपूर्व सूर्य, अपूर्व चन्द्रमा, अपूर्व महोदय की दिव्यता (दीपरुचि) का उदय हुआ है अथवा जाज्वल्यमान अपूर्व अग्नि का प्रादुर्भाव हुआ है ?
१. शुभसंविद् - शुभप्रतिज्ञा ।
२. सुनोति - उत्पादयति । ३. च इति अपि ।