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सप्तमः सर्गः
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५९. चञ्चच्चन्द्रासौ सञ्चरणं, यत् संसिद्धं संयमकलनम् । - शैथिल्यस्यानेऽग्ने सरणं, नो नो तदिदं साध्वाचरणम् ॥ . अर्हत् द्वारा निर्दिष्ट श्रामण्य के पथ पर चलना तो चमचमाती खड्ग की धारा पर चलने जैसा है। परंतु यहां संघ में तो आगे-से-आगे शिथिलता के मार्ग पर ही बढ़ना है । यह तो साध्वाचार है ही नहीं। ६०. दुर्लभदुर्लभजनश्रद्धा, सापि न हस्ते येषां श्रद्धा । ... अपिलवमात्रं नहि पावित्यं, नो सम्यक्त्वं नो चारित्यम् ॥
___आहती श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है। जिनको यह श्रद्धा प्राप्त नहीं है, उनके लवमात्र भी पवित्रता नहीं है । न वहां सम्यक्त्व है और न चारित्र । ६१. क्षीरनीरवत् कृत्यविवेकः सम्बद्धोऽयं पन्थाश्चैकः ।
रिक्तरेतैः कापि न सिद्धिः, केवलमिथ्यामायावृद्धिः॥
__मुनि भिक्षु ने क्षीरनीर विवेक के आधार पर अपना एक मार्ग निश्चित किया। उन्होंने सोचा, संयमशून्य इन मुनियों के साथ रहने से कोई सिद्धि प्राप्त नहीं होगी, केवल मिथ्या मायाचार की ही वृद्धि होगी। ६२. आगमपाठा बहुविस्तीर्णा, मुख्या मुख्या सारधुरीणाः। पविलेखावत् ते सङ्कीर्णा, मानसपटले तेनोत्कीर्णाः ॥
जैन आगमों के पाठ अति विस्तृत हैं, परंतु जो पाठ मुख्य और सारवान् थे, मुनि भिक्षु ने उन पाठों को वज्ररेखा की भांति संक्षिप्त कर अपने मानस पटल पर उत्कीर्ण कर डाला। ६३. आगमदोहनतः सोल्लासः, समभूद् भिक्षोर्दृढविश्वासः ।
श्राद्धाः सत्याः सत्यः पक्षस्तेषामागमसम्मतलक्ष्यः । । आगमों के दोहन से मुनि भिक्षु को यह दृढ़ विश्वास हो गया कि ये श्रावक सच्चे हैं, इनका पक्ष भी सच्चा है और इनका लक्ष्य भी आगम-सम्मत है। ६४. वयमनगाराः साध्वाचारः, पतिता नष्टा मिथ्याचारः। भगवच्छासनतो विपरीताः, साकं भिन्नजनानपि नीताः ॥
भिक्षु ने मन ही मन सोचा-हम अनगार हैं, किन्तु हम साध्वाचार से शून्य हैं, तथा मिथ्या आचार से नष्ट हो रहे हैं। हम भगवान् के शासन से विपरीत चलते हुए सामान्य लोगों को भी साथ ले जा रहे हैं। . ६५. स्वाञ्चेतस्ता परिहरणार्थ, सोऽयं यत्नं कुरते सार्थम् । .
मिथ्यावादे यदि गतशङ्काः, सत्यासारे किमु सातङ्काः ॥ १. अचेतस्ता-अज्ञान ।