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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
... : . 'मेरे पर विश्वास रखो, विश्वास रखो, अविश्वास मत रखो'-ऐसा कहने वाले वाचाल व्यक्तियों के कथन से तथा सत्ताबल से क्या यह विश्वास कभी जम सकता है ? १८. शून्यपिचण्ड: शून्यैर्गर्जः, शून्यस्फुरणः 'शून्यस्फूर्जः । ___मेघोऽयं किं सहजसमि, शस्यैः श्यामां कुरुते भूमीम् ॥
___क्या शून्योदर, शून्य गाज-बीज तथा शून्यघोष वाला मेघ इस भूमी को शस्य-श्यामल और जल से सहज आप्लावित कर सकता है ? ८९. मुग्धानन्दसमर्थितपीनं बाह्याडम्बरसारविहीनम् । . .:. क्षणिकं जनयति हर्षालापं, कार्य पश्चाद् बहुसन्तापम् ॥
सामान्य जन के आनन्द एवं समर्थना से पुष्ट तथा बाह्य घटाटोप वाला और सारविहीन कार्य क्षणिक हर्ष को उत्पन्न भले ही कर दे किन्तु पश्चात् वह बहुत संतापकारी ही होता है। .९०. किन्त्वेतां तात्त्विकसम्पन्ना, श्रुत्वा भिक्षुगिरं व्युत्पन्नाम् ।' . : रोमाञ्चितवपुषस्ते श्राद्धाः, सजाता यत् कुमतव्याधाः॥ .........किन्तु मुनि, भिक्षु की तात्त्विक . और ; ज्ञानयुक्त वाणी को सुनकर वे श्रावक रोमाञ्चित हो उठे और अयथार्थमत को नष्ट करने के लिए वे मानो व्याध ही बन गए। ९१. ये खरपुच्छादाने दक्षा, येऽन्धाक्षेपकराधःकक्षाः ।
आभिग्नहिमुखंमिथ्यापक्षा, अवसितमानास्ते च विलक्षाः ।। ___ जो गधे की पूंछ पकड़ने में दक्ष, झूठा आक्षेप करने वाले, जघन्य श्रेणी वाले, आभिग्रहिक मिथ्यापक्ष वाले तथा अहंकार से बंधे हुए श्रावक थे वे लज्जित से हो गये। ९.२. स्वार्थप्रह्वो नासीदः भिक्षुर्यस्मादेकक आप्तबुभुक्षुः । . . .नो कार्पण्यं नो वैवयः, तस्यौदार्य विदुषां वर्ण्यम् ॥
मुनि भिक्षु स्वार्थी नहीं थे । वे अकेले ही वीतराग बनने के भूखे नहीं थे। वे कृपण तथा मनोमालिन्य से युक्त नहीं थे। उनकी उदारता विद्वानों द्वारा वर्णनीय थी। ९३. तस्मात् सविधे स्थितसाधूनां, लब्धं तत्त्वं प्रतिलिप्सूनाम् ।
तेषां तारणसुधिया सोऽयं, दर्शयते प्रतिबोधयतेऽयम् ॥ १. पिचण्ड:-पेट (पिचण्डो जठरोदरे-अभि० ३।२६८). . २. वैवयं-मनोमालिन्य, निष्प्रभता।