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सप्तमः सर्गः . .
૨૨૧ - इसलिए अपने साथ रहने वाले तत्त्व-जिज्ञासु साधुओं का उद्धार करने के लिए तथा प्रतिबोध देने के लिए मुनि भिक्षु ने स्वयं को उपलब्ध सत्य का उन्हें दिग्दर्शन कराया। ९४. सत्यविकाशे कः प्रतिबन्धः, सत्योल्लासे को निर्बन्धः । हस्तक्षेपी तत्र निरोधी, सोऽयं मायाजालपयोधिः ॥
सत्य के विकास में प्रतिबंध कैसा ? सत्य को उल्लसित करने में बाधा कैसी ? जो इस विषय में हस्तक्षेप करता है, सत्य-प्रवाह को रोकता है, वह मायाजाल का समुद्र है। ९५. ज्ञेय ज्ञेयं ज्ञानानन्दं, सन्तो विलसन्त्येवाऽमन्दम् । ___भारिमालजीप्रमुखाः सर्वे, जाता मुख्याः सत्यसुगर्वे ॥
साथ वाले सभी संत मुनि भिक्षु से तत्त्वज्ञान पाकर ज्ञानानन्द में अत्यंत लीन हो गये। प्रमुख संत भारिमलजी आदि उस सत्य की उपलब्धि से सात्विक गर्व का अनुभव करने वालों में मुख्य बन गए। ९६. अनगाराणां शुद्धविचारं, शुद्धाचारं वारं वारम् । .. श्रुत्वा मत्वा भिक्षुमुनीन्द्र, श्लाघन्ते ते तं निस्तन्द्रम् ॥
मुनियों के शुद्ध आचार और शुद्ध विचार को बार-बार सुनकर वे सभी मुनि जागरूक मुनीन्द्र भिक्षु की प्रशंसा करने लगे। . ९७. ते चत्वारः सन्तस्तावद्, विस्मितमनसो ब्रुवते यावत् । धन्यो धन्यस्त्वञ्च मुमुक्षुर्धन्या ते धीस्तत्त्वदिदृक्षुः॥
(उस समय मुनि भिक्षु के साथ चार संत थे।) वे चारों मुनि विस्मय-, विमूढ होकर कहने लगे हे महाभाग ! धन्य-धन्य हैं आप मुमुक्षु. को ! धन्य है तत्त्व का साक्षात् करने वाली आपकी बुद्धि को ! ९८. सम्यग्बोधदिवाकरदीप्ता, · सुभगाचारोत्तेजःकलिता। चञ्चच्चिन्तारत्नमनोज्ञा, येनोद्गमिता श्रद्धा, योग्या ॥
हे विज्ञ ! . आपने वीतराग की वाणी के योग्य वह श्रद्धा दिखलाई है जो सम्यक् ज्ञान रूप सूर्य से उद्दीप्त एवं विशुद्ध आचार के तेज से युक्तं.और चमकते हुए चिन्तामणि रत्न. के. समान मनोज्ञ है। . . ९९. नष्टातङ्कविनष्टाऽज्ञानं, न्यक्ष'क्षेमकरं विज्ञानम् ।
निष्काशितवान् सोऽसंव्यानं, यस्माज्जागतिक कल्याणम् ॥ १. न्यक्ष-समग्र ।