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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ....... आर्य ! आपने ऐसा समग्र कल्याणकारी विज्ञान प्रस्तुत किया है जो भय और अज्ञान से शून्य है तथा जिससे व्यापक जागलिक कल्याण होने वाला है। १००. आविष्कर्ता रत्नत्रय्या, या कल्याणी लोकत्रय्याः।
...नान्यातः का स्वच्छा व्यक्तिः, सकलहितार्थं यदभिव्यक्तिः॥ . . ___. आर्य ! तीनों लोक का कल्याण करने वाली रत्नत्रयी के आप उद्भावक हैं। यह उद्भावन संपूर्ण हित के लिए है। इससे और अच्छी अभिव्यक्ति दूसरी नहीं हो सकती।
१०१. अन्तर्लोचनयोः पर्याप्तं, येषामाविष्करणं जातम् ।
प्रसृमरा यज्ज्योतिर्माला, सत्यपथाप्तौ ते ह्य त्तालाः॥
उन सहवर्ती मुनियों की अन्तर्दष्टि पर्याप्त विकास कर चुकी थी। उससे विकास की ज्योतिर्माला प्रसृत हो रही थी। मुनि सत्य-मार्ग की उपलब्धि के लिए उतावले हो रहे थे।
१०२. बद्धाञ्जलयो विज्ञपयन्ते, श्रीमन्तः किं शिथिलायन्ते ।
श्रेयःकार्ये नैव विलम्बः, कार्यस्तूर्णं देयः स्तम्भः ॥
उन मुनियों ने बद्धांजलि हो मुनि भिक्षु से कहा-'श्रीमन् ! आप शिथिल होकर क्यों बैठे हैं ? नीतिवाक्य है कि शुभकार्य में विलंब नहीं करना चाहिए। आप शीघ्र ही जैन धर्म के जीर्ण-शीर्ण सौध को स्तंभ का अवष्टंभ दें।'
१०३. हेयः शिथिलाचारविचारः, श्रेयः श्रेयानात्मोद्धारः। _' निस्तरणीयो भवजलपारः, तत्र भव त्वं कर्णाधारः॥
___ 'आर्य ! आप शिथिल आचार और शिथिल विचार को छोड दें तथा श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर आत्मोद्धार को स्वीकार करें। आप स्वयं भवसागर के पार' जाएं और दूसरों के पारगमन में कणधार बनें ।'
१०४. केऽमी गुरवः कोऽयं सङ्कः, के च सतीर्थ्याः कोऽयं रङ्गः। ...
केऽमी बाह्यारङ्गतरङ्गाः, तत्त्वमृतेऽतरतरलतरङ्गाः॥
'कौन तो ये गुरु ? कैसा यह संघ ? कौन ये अपने साथी मुनि ? कैसी यह प्रतिष्ठा ? और कौनसी यह बाह्य सुख-सुविधा ? आर्य ! सत्य तत्त्व के बिना ये सारे समुद्र की चंचल तरंगों के समान हैं।'