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सप्तमः सर्गः ..... "..---. 'क्या ग्रीष्म ऋतु के संताप से तप्त, शोषित, संकुचित तथा सारहीन बने हुए संसार को पुक्कलावर्त मेघ उद्वेगरहित नहीं कर देता ?' , ...
'इसी प्रकार आपने जो कहा, उस एक वचन ने अनुत्साह से मलिन बने सैकड़ों अन्तःकरणों का प्रक्षालन कर उनको आशान्वित कर दिया है।' ८३. तस्माद् भिन्न भिन्नाकारं, कोटिकोटिकापट्यविकारम् । नहि नहि तनुते वचनं तोषं, प्रत्युत वर्द्धयतेऽसन्तोषम् ॥
'हे मुने ! सत्य से भिन्न तथा भिन्नाकार वाले वचन जो बहुविध कपट और विकारयुक्त होते हैं, उनसे कभी संतोष नहीं होता। प्रत्युत वे असंतोष को ही बढ़ाते हैं।' ८४. युष्माभिः सह तात्त्विकचर्चा, क्लुप्ता किन्तु न सा च समर्चा ।
तस्या लेभे सस्याऽऽस्वादः, क्षीणः क्षीणतरोऽद्य विषादः॥
'हे मुने ! हमने आपके साथ जो तात्त्विक चर्चा की, वह केवल चर्चा ही नहीं थी, किन्तु साथ-साथ उसमें आपकी अर्चा भी थी। हमने उसके फल का आस्वादन किया है। आज हमारा विषाद क्षीण, क्षीणतर हो गया है।'
८५. आकाशेभ्यो नोत्तरतीयं, पातालेभ्यो नोद्भवतीयम् ।
नान्यः कृत्रिमकोटिकलापैरियं प्रतीतिविमलाशापैः ॥
५६. आर्जवमार्जवमार्दवचित्तादऽवतारोऽस्या न्यायौचित्यात् । साक्षाद् द्रष्टव्येयं भव्यः, सत्याद् भिक्षोः सूता सभ्यः॥ : ''
(युग्मम्) यह विमल प्रतीति न आकाश से टपकती है, न पाताल से ही उद्भूत होती है, न विविध प्रकार की कृत्रिम प्रवृत्तियों से प्राप्त होती है और न शपथोक्तियों से ही जन्मती है।
. इस प्रतीति का अवतरण ऋजुता, पवित्रता और करुणाशीलता से होता है। मुनि भिक्षु के एक सत्य वचन ने भव्य लोगों में यह प्रतीति उत्पन्न कर दी, यह साक्षात् द्रष्टव्य है।
८७. रक्षत रक्षत मयि विश्वासं, मा मा रक्षत मदऽविश्वासम् ।
एवं केवलजल्पाकत्वैः, किमिव तिष्ठते सोयं सत्त्वैः॥ १. शापः-शपथोक्ति, सौगन्ध ।