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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
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६. छद्मस्या बहुलब्ध्युपजीवाश्चारणमुनयः कुतुकक्षीवाः । कौतुहलादपि यत्रागन्तुं नो वाञ्छन्ति कथञ्चन रन्तुम् ॥
अनेक कुतूहलप्रिय और लब्धिधारी छद्मस्थ मुनि तथा चारण मुनि भी कुतूहलवश या किसी प्रकार से यहां आना और रमण करना नहीं चाहते
७. इच्छितगमना ये निजतन्त्रा, आराधितविद्यामणिमन्त्राः । वैताद्यादिगिरीन्द्रनिवासाः, प्रोत्सर्पन्ति न तेऽपि निराशाः ॥
जो यथेष्ट गमन करने में स्वतंत्र हैं, जो विद्या, मणि और मंत्रों के आराधक हैं तथा जो वैताढ्यगिरि पर रहने वाले हैं, वे विद्याधर भी यहां आना नहीं चाहतें ।
८. कौतूहलकोशाध्यक्षोऽसौ, जिनमतभक्तः प्रत्यक्षोsai | अम्बरचारी स्वैरविहारी, तदपि न नारद इह सञ्चारी ॥
कुतूहल के आवासस्थल, जिनमत के प्रत्यक्ष भक्त तथा आकाश में स्वतंत्र विचरण करने वाले नारद भी यहां आना नहीं चाहते ।
९. इति सङ्कल्पितकल्याकेलि, मन्ये कश्चन कथयति हेलिम् । तस्मिन् भारत ! भारतभिक्षुः, सर्वोद्धारी सेव मुमुक्षुः ॥
सूर्य इस प्रकार भरतक्षेत्र के कल्याण की बात सोच ही रहा था कि इतने में मानो कोई कह रहा है - सूर्य ! उस भरतक्षेत्र में वे ही मुमुक्षु भिक्षु सबका उद्धार करने वाले हैं ।
१०. तावत्तस्मादाश्रुतवृ त्तः,
प्रत्युद्गन्तुमनन्तरचित्तः । वर्द्धापिन्यां तत्साम्राज्यं, तां दत्त्वा संवृत्तः प्राज्यम् ॥
सूर्य ने रजनी से सारा वृत्तान्त सुना । उसका अन्तर् मन वहां जाने के लिए उत्सुक हुआ, तब वह रजनी को अपना सारा साम्राज्य सौंपकर भरत क्षेत्र की ओर चल पडा ।
११. शनकैः शनकैस्तिमिरासक्तिः, नष्टा सा हृततत्तनुतप्तिः । इत उदितं जगतामवदातं, मङ्गलमयमिदमेव विभातम् ॥
तब अन्धकार धीरे-धीरे मुनि के शरीर के ताप को लेकर चला गया, रात बीत गई और इधर विश्व में शुभ्र एवं मंगलमय प्रभात उदित हुआ ।
१२. शतशतभुजकरभुवनविसारी, निखिलनिखिलखलदलसंहारी । कोकलीकसमशोक विमोकश्चञ्चलचलचञ्चूचितशोकः
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