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वर्ण्यम्
__ ज्वरमुक्त मुनि भिक्षु ने दीर्घ आत्ममंथन करते हुए सोचा'मुझे आरोग्य प्राप्त हो गया है । अब मुझे मुक्ति को लक्ष्य में रखकर आत्म-कल्याण कर लेना है। असत् प्ररूपणा बहुत बड़ा पाप है। मुझे सत्य को अभिव्यक्ति देनी है।' उन्होंने राजनगरवासी श्रावकों की विज्ञप्ति से वि. सं. १८१५ का चातुर्मास राजनगर में किया और वे सिद्धान्तों का गहन अध्ययन करने में जुट गए । ज्ञान के प्रकाश में सत्य का साक्षात्कार हुआ और उन्होंने मन ही मन सोचा-हम साध्वाचार से भटक गए हैं । अर्हत् द्वारा निर्दिष्ट श्रामण्य कुछ और है और हम जिसकी अनुपालना कर रहे हैं, वह कुछ और है। एक दिन आत्मशक्ति बटोर कर, गुरु परंपरा का मोह छोडकर, मुनि भिक्षु ने श्रावकों को कहा-'तुम सही हो। हम असत्य मार्ग पर हैं।' इस कथन से श्रावकों में विश्वास जागा, वे आशान्वित हुए। मुनि भिक्षु ने साथी मुनियों को अपने विचार बताए। मुनि उन विचारों पर झूम उठे और बोले-'आप क्रान्ति के संवाहक बनें और जैन धर्म के जीर्ण-शीर्ण सौध को अवष्टंभ दें। हम आपके इस पुनीत कार्य में सहयोगी बनेंगे।' मुनि भिक्षु क्रान्ति के लिए उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करने लगे।