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सप्तमः सर्गः
१३. मञ्जुलमञ्जुमरीचिसुमाली, सूचितशुचिरुचिसञ्चरशाली ।' खेचरचक्रस्य, समवर्ती वावक्रस्य ॥
चक्राभृत्
१४. आखण्डलककुभस्ताटङ्कः, अन्तरिक्षमण्डलमाणिक्यं,
सहजविश्वमन्दिरदीपाङ्कः । कालमात्र परिवर्तन शिक्यम् ॥
१५. परिमल लोलुपरोलम्बानि, प्रकिरन् कमलाकरकमलानि । स्वालोकालोकीकृतविश्वः, प्रद्योतितसमनिस्वानिस्वः ॥
१६. विदितार्थिकहृदयाप्ताह्लादः,
स्मृत्यन्तरसृतसायंसादः । त्वरितं त्वरितं द्वीपान्तरतः, सपदि तत्र दिननाथ उदीतः ॥
(पञ्चभिः कुलकम् )
इतने में ही सैकड़ों किरणों से सम्पूर्ण जगत् में विस्तृत होने वाला, समस्त अपराजेय दुष्टजनों का संहारक, चक्रवाकों को शोक से विमुक्त करने वाला, उनके चंचल चंचूपुट को खोलने वाला, मंजुल किरणों का धारक, पवित्र - सही पथ को दिखाने वाला, आकाशचरों का चक्रवर्ती तथा समविषम के प्रति समभाव से बरताव करने वाला सूर्य उदित हुआ ।
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पूर्व दिशा का कुंडल, विश्व का सहज दीप, गगनमंडल का माणिक्य, कालमात्र के बीतने के लिए ( घूमने के लिए ) रज्जु के समान वह सूर्य कमलाकरों के कमलों को विकस्वर कर रहा था । कमलों के परिमल के लोलुप भौंरे उन कमलों पर मंडराने लगे । वह सूर्य अपने आलोक से समस्त विश्व को आलोकित करता हुआ, धनी और निर्धन को समानरूप से द्योतित कर रहा था । 'भिक्षु बोधि को प्राप्त हो चुके हैं - यह सोचकर वह आह्लाद से भर गया । सायंकालीन अपनी अस्तमय अवस्था को भूलकर वह अत्यंत त्वरा से द्वीपान्तर से चलकर यहां भरतक्षेत्र में आ पहुंचा ।
१७. अन्तर्वृत्त्या चारु प्रबुद्धं, सत्यस्याभिमुखे स्थितमिद्धम् । शतशतकरतः स्पर्श स्पर्श, प्रणंणम्यते तं सह हर्षम् ॥
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वह सूर्य अन्तर्वृत्ति से सम्यक् प्रबुद्ध तथा सत्य के अभिमुख स्थित मुनि भिक्षु के चरणों का अपनी शत-शत किरणों से सबसे पहले स्पर्श करता हुआ सहर्ष प्रणाम कर रहा हो, ऐसा प्रतीत हुआ ।
१८. तेजःपुञ्ज कारं. कारं, प्रार्थयते किं वारं वारम् । वर्त्तय वर्त्तय सत्यविकास, संहर संहर मिथ्याभासम् ॥