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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १०५. तत एतदशिष्टगुरुप्रणयं, प्रणिहातुमनुत्सहसे च कथम् ।
भव धीरधुरन्धरवीरवरः, तरणाय भवोदधिमाशुतरम् ।
इसलिए हे मन ! तुम्हारा गुरु के प्रति यह स्नेह उचित नहीं है। तुम उस स्नेह को छोड़ने में क्यों हिचकिचाते हो? तुम भवसिन्धु को शीघ्र तैरने के लिए प्रशस्त धीरता और प्रशस्त वीरता को अपनाओ।
१०६. भगवान् भवताद् भवताच्च गुरुभवतादपरोऽपि परोऽपि महान् ।
स्वयमेव भवेत् त्रिशलातनयः, स्वयमेव भवेद् वसुभूतिसुतः ।। १०७. यदि तैः समयाभिमतं चरितमनुकार्यमवन्तु तदेव शुभम् । समयातिगमाचरितं च न तत्, करणीयतयाऽत्र कदापि मतम् ॥
(युग्मम्) भगवान् हो या गुरु अथवा कोई महान् से भी महान् क्यों न हो, चाहे स्वयं त्रिशलानन्दन भगवान् महावीर हो या वसुभूतिपुत्र स्वयं गौतम हो, यदि उन्होंने वीतराग के सिद्धान्तानुसार आचरण किया है तो वह अनुकरणीय है और वही शुभ है। किन्तु सिद्धान्त का अतिक्रमण कर जो आचरित है, वह कभी भी करणीय नहीं माना जा सकता।
१०८. न हि रागमृते न हि रोषमृते, न हि मोहमृतेऽनवबोधमृते ।
अशुभाध्यवसायमृते नियतं, न कदाप्यशुभप्रभवप्रभवः।
राग-द्वेष-मोह-अज्ञान एवं अशुभ अध्यवसायों के बिना अशुभ पराक्रम का उदय हो नहीं सकता।
१०९. सुविधाऽसुविधा प्रभुताऽप्रभुता, स्तुतयोऽस्तुतयोऽद्य भवन्तु न वा ।
निरयन्त्यसवोऽनिरयन्तु तदा, न तथापि जिहासुरहं च ऋतम् ॥
सुविधा मिले या असुविधा, प्रभुता मिले या अप्रभुता, प्रशंसा मिले या निन्दा, प्राण रहें या जाएं -- कुछ भी क्यों न हो मैं सत्य को नहीं छोडूंगा।
११०. अमुना विधिना विरचय्य मुहुर्महुरेव तदा सुकृतस्मरणम् ।
स्मरणेन परिष्कृतमाविपथः, पथरोधमपोह्य स शुद्धमनाः ॥
शुद्धमना भिक्षु ने उपरोक्त चिन्तन-विधि से बार-बार सुकृत का स्मरण करते हुए अपने भावी पथ का परिष्कार कर मार्गगत सारे अवरोधों को दूर कर दिया।