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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ११७. अयमेव चिदन्तरबोधमणियंदमुष्यकजीवनराजपथम् ।
अवलोकयिता प्रतिदर्शयिता, भवितान्तिमजीवनकं सुतराम् ॥
यही चैतन्य को जागृत करने वाला बोध-मणि है। यही बोध इनके जीवन का राजपथ होगा। यही जीवन को आलोकित करने वाला, पथदर्शन देने वाला तथा आजीवन तक साथ रहने वाला होगा। ११८. इह केचन जागतिका मनुजा, गदमाप्य कदाप्यशुभोदयतः ।
नहि तोषमयन्त्यपतोषरता, गमयन्त्यपचिन्तनया समयम् ॥
इस संसार में ऐसे मनुष्य भी हैं जो अशुभ कर्मोदय से उत्पन्न होने वाले रोगों को समभाव से सहन न कर, विलाप करते हुए दुश्चिन्तनपूर्वक उस रोगाक्रान्त समय को पूरा करते हैं । ११९. विलपन्ति रुदन्ति लुठन्ति मुहुर्महुरेव तुदन्ति नुदन्ति परान् ।
व्यथयन्ति पतन्ति रटन्ति कटु, ददतामगवं ददतामगदम् ।।
कुछ रोगाक्रान्त व्यक्ति विलाप करते हैं, रोते है, भूमि पर बार-बार लुठते हैं, व्यथित होते हैं, उकसाते हैं, दूसरों को व्यथित करते हैं, गिर पड़ते हैं तथा चिल्लाते हुए कटु शब्दों में कहते हैं-'हमें औषधि दो, हमें औषधि दो' । १२०. मरणं मरणं मरणं न भवेदवरक्षतु रक्षतु रक्षतु माम् ।
इति दीनगिरा हृदयाधिकिरा, परिपीडयति प्रकृतानुगतान् ॥
रोगाक्रान्त मनुष्य मौत से घबराकर कहता है-अरे ! मेरी मृत्यु न हो जाए ! मौत न आ जाए। मेरी रक्षा करो, मुझे बचाओ। इस प्रकार हृदय को विदीर्ण करने वाली दीन वाणी से वह अपने परिचारकों को व्यथित कर देता है।
१२१. प्रणता न कदाप्युपतापनता, विषमात्तिमिता ग्रथिला इव ते ।
निजभानमुदस्य भवन्ति शठाः, शिथिलाः विकलाः कृपणा रवणाः ॥
जो व्यक्ति कभी अन्यान्य कष्टों के सामने नहीं झुकते, कायर नहीं होते, वे व्यक्ति भी रोगाक्रान्त होने पर प्रथिल की भांति विषम-क्लेश का अनुभव करते हुए अपना भान भूलकर शठ, शिथिल, शून्य (विकल), कृपण और प्रलापक बन जाते हैं।
१२२. उदयावलिकागतदुःखभुजो, वधते नवदुःखमिदं च पुनः ।
अशुभेन युजातविचिन्तनयाऽसमतापतिरोहितवासनया ॥ १. प्रकृतानुगतान्-परिचारकों को।