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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ७३. अतितुच्छमसत्यमपीह वचो, ववतोङ्गभूतश्चरमा कुगतिः। जिनवागविपरीतनिरूपयितुरधमा कतमा गतिरेति विभुः ॥
अत्यंत साधारण असत्य वचन का प्रयोग करने वाला भी मनुष्य चरम कुगति को प्राप्त होता है तो फिर वीतराग वाणी के विपरीत मिथ्याप्ररूपणा करने वाले की तो न जाने कौनसी अधम गति होगी, यह सर्वज्ञ ही जान सकते हैं।
७४. प्रतिजन्म मिलेन्न ततो रसना, प्रमिलेच्च तिरस्कृतिदोषमरा ।
यदि लोकमलीकमपीदृशकं, तदलौकमयस्य किमस्ति कथा ?॥
__लौकिक झूठ बोलने वाला प्राणी जन्म-जन्मान्तर में भी जिह्वेन्द्रिय नहीं पा सकता। यदि संयोगवश पा भी लेता है तो उस प्राणी की वाणी तिरस्कार के दोष से युक्त होती है। इस स्थिति में लोकोत्तर झूठ बोलने वाले का तो कहना ही क्या ?
७५. सकलानि तमांसि यदेकदले, इत एकदलेऽनृतमेकमिदम् । न तथापि समुन्नतिमेति ततो, न च तानि नयन्ति कदापि नतिम् ॥
तुला के एक पल्ले में जगत् के समस्त पापों को रखा जाए और दूसरे पल्ले में असत्य-पाप को रखा जाए तो यह पल्ला कभी ऊपर नहीं उठेगा
और समस्त पापों का पल्ला नीचे नहीं आएगा । अर्थात् असत्य का पल्ला ही भारी रहेगा।
७६. यदि कर्मवशान् मिथुनादिकरः, श्रयते पदवीं विषमस्थितितः। नहि किन्तु कदापि मृषालपन:, श्रमणः समयादिति तन्न शुभम् ।।
यदि कोई मुनि कर्मोदय के कारण अब्रह्म जैसे बड़े दोष का सेवन कर प्रायश्चित्त के द्वारा अपनी शुद्धि कर लेता है तो वह गण के सात पदों में से किसी भी पद को प्राप्त हो सकता है। परन्तु मृषावादी श्रमण किसी भी पद के योग्य नहीं हो सकता।
७७. यदनन्तजिनेन्द्रतदीयवचो, विनिरस्य किलैक गुरुं कुगुरुम् ।
परिरजयितुं श्रितसत्यनरान्, वितथीकृतवानिति शोच्यपदम् ॥
___ मैंने अनन्त तीर्थंकरों का तथा उनकी वाणी का निरसन कर केवल एक कुगुरु को प्रसन्न करने के लिए उन सत्य-परायण भक्तो को असत्य ठहरा दिया। यह मेरे लिए चिन्तनीय है।