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षष्ठ: सर्ग:
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मैं उपदेश करते समय वीतराग-सा बन जाता हूं, परन्तु आचरण में तद्रूप कभी नहीं होता तो मेरा उद्धार कैसे होगा ? मेरा समुद्धार कैसे होगा ? ६८. अपरान् परिशासितुमुग्रबुधो, न निजं करणे तु न किञ्चिदपि ।
स्वनसम्भृतयान्त्रिकवाद्यनिभो, यदि वार्थिकरङ्गपतिप्रतिमः॥ ___ जो दूसरों को उपदेश देने के लिए उतावला बना रहता है, पर स्वयं के आचरण में उनका किञ्चित् भी प्रयोग नहीं करता तो वह ग्रामाफोन की रेकार्ड के समान अथवा अर्थार्थी अभिनेताओं के सदृश है । ६९. अपराचरणाय सचेष्टतमः, स्वयमाचरितुं बहुपृष्ठतमः।
स कथं सफलः परिहासपदं, तितउ: किमु रिक्तनिपान् भरणे॥ ___ जो दूसरों को सत्याचरण कराने में सचेष्ट रहता है, परंतु उसी सत्य को स्वयं के आचरण में लाने में पीछे रहता है, वह कैसे सफल हो सकता है ? प्रत्युत वह उपहास का पात्र बनता है। क्या चलनी कभी रिक्त घड़ों को भर सकती है ?
७०. अवलम्ब्य दलं स्वगुरोः सबलं, परमार्थविवेकमपास्य मुधा।
क्षणिकार्थमनर्थमदो व्यदधं, यदृतानऽनृतानऽकृषं ननु तान् ॥
_ मैंने अपने गुरु का सबल पक्ष ग्रहण कर अपने परमार्थ के विवेक को व्यर्थ ही गवां डाला । मैंने क्षणिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए इतना बड़ा अनर्थ कर दिया कि केवल वाक्-बल से उन सच्चे श्रद्धालुओं को भी झूठा ठहरा दिया।
७१. उपरोध'वशादवरोधवशात्, कथमेव कथं वदते वितथम् । श्रयते शरणं नरकं स नरो, वसुवच्छमणस्य तदास्ति किमु ॥
जो मनुष्य अनुग्रह या अवरोध के वशीभूत होकर जैसे-तैसे असत्य बोलता है तो वह 'वसु' राजा की भांति नरक में ही जाता है तो फिर श्रमण की तो बात ही क्या !
७२. न निषेधविशेषणतो हि भवेन, निरवद्ययथार्थवचः समयः। जिनवाक्यविरुद्धवधादिकरं, दृशि सत्यमपि द्विगुणं वितथैः ॥
सैद्धान्तिक दृष्टि से केवल निषेधात्मक विशेषण लग जाने मात्र से ही कोई वाक्य निरवद्य नहीं हो जाता । देखने में सत्य प्रतीत होने वाले सत्य वचन यदि जैन वाङ्मय से प्रतिकूल एवं हिंसावर्धक हैं तो वे असत्य से भी गुरुतर हैं (बढ़कर हैं)। १. उपरोध:--अनुग्रह।