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षष्ठः सर्गः
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नरक में परमाधार्मिक देव उन नारकों को तीखी कीलों से कीलते हैं, करवत से चीरते हैं, कुद्दाल से खोदते हैं। ऐसी स्थिति में वे नारकीय जीव 'मत मारो, मत मारो' चिल्लाते रहते हैं, परन्तु वे देव उनको पीटने से विरत नहीं होते । नारक जीव शरण की खोज में वैतरणी नदी की ओर दोड़ते हैं । उसमें छलांग लगाते हैं और नदी के उबलते पानी में उबल जाते हैं। वहां भी बहुविध ताड़नाएं प्राप्त होती हैं। अधिक क्या कहा जाए, वहां हनन और मानभंग के साथ-साथ अनन्त दुःख अनन्त वार मैंने सहन किए हैं । वहां निमिषमात्र का भी सुख नहीं है । वहां सुख से दुःख अनन्त गुना है ।
५७. तत एतदुपेतगदोऽस्ति कियत्, कृतपापमवश्यमुदेतितराम् ।
परितापयते बहिरङ्गमिदं, बहुभुक्तमनन्तमनन्तभिदा ॥
अरे भीखन ! उन नारकीय कष्टों की तुलना में यह ज्वर का कष्ट तो है ही कितना ? किए हुए कर्मों का उदय तो सुनिश्चित है ही । यह ज्वर तो बाह्य अंग को ही परितप्त कर रहा है । मैंने अनन्त बार अनेक प्रकार के शारीरिक कष्टों को भोगा है ।
५८. अपवादभयं न विवादभयं, न नियोगभयं न वियोगभयं ।
नहि कष्टभयं नहि पृष्ठभयं, नहि मृत्युभयं न भयस्य भयम् ॥
मुझे न तो अपवाद का भय है, न विवाद का भय है, न अनुशासन का भय है, न वियोग का भय है, न कष्टों का भय है, न पीछे का भय है, न मृत्यु का भय है और न भय का ही भय है ।
५९. परमस्ति यदन्तरखिन्नमनो, नहि सुष्ठु कृतं शरणागत सत्य वर्दमं नुजैर्य दऽसत्यसमाचरितं
किन्तु मेरा अन्तर्मन अत्यंत खिन्न है । वह बार-बार कहता है'अच्छा नहीं किया, बहुत बुरा किया।' शरण में आए हुए सत्यभाषी श्रावकों के साथ मैंने असत्य का व्यवहार किया । (उन्होंने जो कहा वह सत्य था और मैंने जो समाधान दिया वह मिथ्या था । )
बहुदुष्ठकृतम् । रचितम् ॥
६०. उचितं रुचितं परिवेद्य तु मामनुसृत्य तर्कवरताऽविरतैः । हृदयं विकचय्य विचिन्त्य समं, लपितं च यथार्थगतं विगतम् ॥
उन सत्यनिष्ठ श्रावकों ने मुझे यथार्थवादी समझ कर ही मेरे सम्मुख अपना हृदय खोलकर उचित तथा सुचिन्तित विगत विचारों को प्रस्तुत किया
था ।
६१. अनयाsप्रमया गुरुमोहतया, बहुमानसुनामविलोभनया । अवगोप्य जिनोक्तनियुक्तमतं विनिगूढसदर्थ कदर्थनया ||
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