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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
८४. नहि केऽनवधानपदं प्रगताः, नहि के चलिता नहि के स्खलिताः । इतिहासविदां यदि वेदनता, तदरं विदरं प्रवदन्तुतराम् ॥
इस संसार में ऐसा कौन होगा जो प्रमत्तता के पथ का पथिक न बना हो, पथ से विचलित न हुआ हो और चलते-चलते स्खलित न हुआ हो? यदि इतिहासकार यह जानते हों तो शीघ्र ही प्रमाणित करें ।
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८५. न यतोऽस्ति विमोहसमर्थनता, स्थितवस्तुपरिस्थितिदर्शनता।
तदतीतजनान् बहुधन्यवदैनमयामि शिरः प्रणमामि पदान् ॥ ___मेरे पूर्वोक्त कथन में प्रमाद का समर्थन नहीं है। मैं केवल वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन कराना चाहता हूं। फिर भी यदि कोई अनवरत प्रमाद आदि से परे रहने वाला हो तो वह धन्यवाद का पात्र है और उस महापुरुष को मैं शिर झुकाकर नमन करता हूं और उसके चरणों में प्रणाम करता हूं।
८६. कथनस्य तु हार्दमिदं विदुषां, विदितं हि विमुच्य दुराग्रहताम् ।
स्खलदङ्गभृतां पुनरेव पथाऽऽगमनं सहचित्रमहत्त्वमिदम् ॥ ___ मेरे कथन का यह हार्द विद्वानों को ज्ञात ही है कि मार्ग-च्युत व्यक्ति यदि दुराग्रह को छोड़ पुनः सत्य मार्ग में प्रतिष्ठित होते हैं तो यह एक महान् आश्चर्य है।
८७. इह केचिदभव्यकठोरहदो, निजनामयशःप्रभुतासु सिताः । बुधितां त्रुटिमात्मभवामपि नो, जहति स्मयतः परलोकहताः ॥
इस संसार में कुछ व्यक्ति अभव्य जीवों के समान कठोर हृदय वाले, अपने नाम, यश एवं प्रभुता के बन्धन से बंधे हुए होते हैं । वे अभिमान के वशीभूत होकर जानते हुए भी अपनी त्रुटियों को अहंकारवश छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते । उनका परलोक भी बिगड़ जाता है । ८८. किमुताऽपरसत्यतमान् प्रसभादभियोज्य मृषा कथमेव कथम् । वितथा अपि सत्यतमा भवितुं, स्वयमेव सदा प्रतियत्नपराः ।।
अपनी त्रुटियों को छोड़ना तो दूर रहा, परन्तु जो सत्यवादी हैं उन पर भी नाना प्रकार के अभियोग लगाकर असत्यवादी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं और स्वयं झूठे होते हुए भी सत्यवादी बनने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। ८९. तदऽयं तु महिष्ठवरोऽस्य ततः, स्वत एव महत्वमुदित्वरकम् । .
न कुरङ्गमदस्य सुगन्धवरस्फुरणा परहेतुमतीमनिता ॥