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चतुर्थः सर्गः
१११ ३९. तं द्रष्टुमुत्कण्ठितशुभ्रवामा, वातायनाद् बाह्यविनिर्गतास्यैः। पद्माकरेषूत्तमपद्मपङ्क्तिसङ्कल्पशीलान् मनुजान सृजन्त्यः ॥
उस महाभाग को देखने के लिए उत्कण्ठित शुभ्र ललनाएं वातायनों से अपना मुंह बाहर निकालकर देख रही थीं, उस समय मनुष्यों में यह कल्पना हो रही थी कि स्त्रियों की पंक्तियां मानों पद्मसरोवर में पद्मों की खिलती हुई पंक्तियां ही हों। ४०. काश्चित् समुत्पन्नकुतूहलेन, किं कि किमेतल्लपनाभिरामाः । अन्योन्यवेगप्रतिरोधकामा, निध्यातुमुत्काः परिधावमानाः ॥
कुछ स्त्रियां 'यह क्या ?' 'यह क्या ?' कहती हुई तथा एक दूसरे के गतिवेग को रोकने की इच्छुक होती हुई उस विरागी को गहराई से देखने के लिए आगे से आगे दौड़ रही थीं। ४१. धावत्क्वणन्नपुरकाञ्चिनादस्तत्तन्नदद्वाद्यसमानरूपाः । जातत्वराः काश्चन बालिकावत्, तं वीक्षितुं हऱ्यातलं समीयुः॥
उन्हें देखने के लिए कुछ स्त्रियां बालिकाओं की भांति उतावली होती हुई दौड कर अपने-अपने विशाल घरों की छतों पर एकत्रित होने लगीं। उस समय उनके नूपुरों और करधनियों की ध्वनि उस समारोह में बजने वाले वाद्यों की ध्वनि के समान थी। ४२. कोऽयं किमर्थं क्व यियासुरुत्क, एवं विधालापकला मिथोऽत्र । प्रत्युत्तराण्यऽर्थपराणि तत्र, कापि प्रगल्भाऽर्पयति प्रबुद्धा ॥
यह कौन है ? यह किस प्रयोजन से कहां जाने के लिए उत्सुक है ? इस प्रकार स्त्रियों में पारस्परिक आलाप-संलाप हो रहा था। तब किसी प्रबुद्ध और निपुण स्त्री ने यथार्थ उत्तर देते हुए कहा
४३. वैरङ्गिकोऽसौ विषयाद विरक्तः, संसारसिन्धुं प्रतितीर्षरेषः । धन्यः सखि ! प्रवजितुं प्रसत्त्या, निर्याति निधूतसमस्तमोहः ॥
यह विरागी है, विषयों से विरक्त है और यह संसार-समुद्र को तैरने का इच्छुक है। यह समस्त मोह को प्रकंपित कर दीक्षा स्वीकार करने के लिये जा रहा है। अतः हे सखि ! यह धन्य है।
४४. अस्मादशीनां क्षणरागिणीनां, सध्रीचि! भोगात् प्रविरज्यमानः ।
शश्वच्चिदानन्दविलासरागां, मुक्ति समादातुमयं प्रयाति ॥ १. सध्रीची-सखी (वयस्यालिः सखी सध्रीची-अभि० ३।१९३)