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पंचमः सर्गः
१०५. व्याचक्षते श्रवणतः श्रुतदृष्टसाराः,
केचित्ततस्तवनुमोदनकृद्वचोभिः । नूनं प्रयातु सुतरां भवतात् कृतार्थी, योग्योऽयमेव कुशलश्च तथाविधायाम् ॥
भिक्षु के सामर्थ्य से पूर्णतया परिचित कुछेक श्रावक उनके गमन की बात सुनकर, उसका अनुमोदन करते हुए बोले-'ये अवश्य जाएं। ये अपने लक्ष्य में सफल हों। ये ही ऐसे कार्यों के लिए योग्य हैं, कुशल हैं।'
१०६. एवं जनोदितमितेतरतारतीवं,
श्लोकामृतं मृतसमस्तसपत्नयत्नम् । पैञ्जूषपत्रपुटकैः परिपीयमानो, मेवाडदेशसहदेशमुपाययौ सः ॥
समस्त विपरीत प्रयत्नों का नाश करने वाले, जनता के द्वारा उच्च ध्वनि से उच्चारित (आशीर्वचनरूप) यशोगान को सुनते हुए भिक्षु मेवाड के निकटवर्ती प्रदेश में पहुंचे। १०७. पादोनयोजनविशालतमा प्रमाभि
नव्यूतषाष्टिकसमष्टिसमप्रयामा । अभंलिहा विलिखिताम्बरलेखलेखा, प्रेङ्खोलिताखिलखलारिनरेन्द्रवृन्दा ॥
__ वहां समस्त दुष्टों एवं शत्रु राजाओं को थर्राने वाली, आकाश का चुम्बन करती हुई, क्षितिज के उस पार अमर पथ से भी आगे बढ़ने वाली, प्रायः तीन कोस चौड़ी और साठ कोस लंबी अरावली पर्वतमाला है । १०८. धर्मध्वजाऽस्खलितशृङ्खलितैव शश्वत्,
सश्वापदा पदपराऽऽप्रतिपालयित्री। राष्ट्रावनेऽसकृदभीष्टसदुर्गदुर्गा, . यन्मेवपाटवरवाटकपाटकल्पा ॥
वह पर्वतमाला धर्मध्वजा वाली, अस्खलित गिरिशृंखला और श्वापदों से युक्त, राष्ट्र की रक्षा के लिए अनेक अभीष्ट दुर्गों से दुर्गम, मेवाड के मार्ग के लिए कपाट-तुल्य तथा शरणागतों का विधिवत् प्रतिपालन करने वाली है । १०९. स्मृत्वा स्वभेदनविरोधममर्षवर्षा,
मेदस्विनी यदवनी प्रविलोक्य वीराम् । आखण्डलस्य पदवी प्रतिरोध्य जेतुं, दुर्ग दृढं विदधती परितः स्थितेव ॥