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षष्ठः सर्गः
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शरीर की समस्त संधियां एवं प्रतिसंधियां टूटती हुई एवं भेदी जाती हुई-सी प्रतीत हो रही थीं। इतना सब कुछ होते हुए भी मुनिश्री का मनोबल इतना मजबूत था कि उस वेदना से न तो वह टूटा और न विदीर्णं तथा क्षुब्ध ही हुआ ।
३५. धमनीधमनीषु महाक्रमणं विहितं बहुतापगदेन मदैः । अशकन्न तदीयसुभावुकतामपहस्तयितुं च विहस्तयितुम् ॥
वह मदोन्मत ज्वर रोग मुनिश्री के स्नायुओं पर आक्रमण कर चुका था । पर वह मुनिश्री की कल्याणकारी भावना को छीन नहीं सका और न उन्हें व्याकुल ही बना पाया ।
३६. अवमर्दकरो बहिरङ्गतयाऽबहिरङ्गतयाऽमदमोदकरः ।
ननु बाह्यकटुः स्वजनो यमिव, किमु वर्धयितुं पटुरन्तरतः ॥
वह ज्वर बाह्यदृष्टि से भले ही उनके शारीरिक कष्ट का कारण बना हो, पर अन्तर्दृष्टि से तो वह स्वस्थ प्रमोद को पैदा करने वाला ही था । जैसे ऊपर से कटु लगने वाला स्वजन अन्तर् में हितदृष्टि वाला ही होता है।
३७. किमु सत्यदलस्य सहायकतामवकल्पयितुं न विकल्पयितुम् । स्वयमेव ऋतं ह्यमुमीरयितुमुदगादिह तापमिषेण रयात् ॥
ऐसा प्रतीत होता है कि वह ताप वास्तव में ताप नहीं, पर उन सत्याग्रही श्रावकों को सहयोग देने के लिए तथा मुनि भिक्षु को चेतावनी देने के लिए ही ताप के मिष से स्वयं सत्य वहां प्रगट हुआ है ।
३८. नहि धूनयते धर्मान धर्मान, तुदतीह परन्त्वयमेतमृषिम् । वद सत्यमिदं वद सत्यमिदं, दरमादर सादरमात्मबलः ॥
वह ज्वर मुनिश्री की नस-नस में पीड़ा पैदा नहीं कर रहा था, परंतु मानो उन्हें यह चुनौति देते हुए कह रहा था - 'हे महाभाग ! घबराओ मत, निर्भीक बन अपने आत्मबल के साथ सत्य का प्रकाशन करो ।'
३९. असुसंहृतिकारकरूपमिदं ज्वर एष ऋषि प्रतिबोद्ध मधात् ॥ न भवेन्मरणं न भवेन्मरणं, भव सत्यवशंवद इत्यऽवदत् ॥
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इस मुनि भिक्षु को प्रतिबोध देने के लिए ही वह ज्वर प्राण-संहारक का-सा रूप धारण कर कह रहा था - ' हे आयुष्मन् ! मृत्यु न हो जाए । मृत्यु से पूर्व ही आपको सत्य स्वीकार कर लेना चाहिए ।'