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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ४०. ज्वर एष किमस्य विशेषतया, समगादिह नेत्रविकासकृते। . उदजीघटदक्षियुगं युगपदऽत एव तुतोष पुपोष परम् ॥
____ क्या वह ज्वर मुनिश्री की अन्तरङ्ग आंख को खोलने के लिए हो विशेष रूप से आया था ? अपने इस कार्य को सम्पन्न हुआ देख वह ज्वर अपनी भावना की पुष्टि से संतुष्ट हो गया ।
४१. न निरामयताभिरयं वदिता, सकलज्ञसमाहितसत्यवचः।
तत एव चमत्कृतिमीक्षयितुं, किमय बलिनं मुनिमाक्रमते ॥
• रोग की पीड़ा के बिना यह मुनि सर्वज्ञ प्रतिपादित सिद्धांतों का सही रूप में दिग्-दर्शन नहीं करा पायेगा, यह सोचकर ही इस ज्वर ने अपना चमत्कार दिखाने के लिए इनके बलिष्ठ शरीर पर आक्रमण किया था।
४२. रविचन्द्रमसोर्ग्रहणं न भवेन, न तदा गणकागमविश्वसितिः।
अविरेचनतो न भिषक्प्रमितिर्न च रोगमृते कृतकर्ममति: ॥
सूर्य-चन्द्र के ग्रहण के बिना गणितशास्त्र पर तथा विरेचन के बिना आयुर्वेद पर जैसे विश्वास नहीं होता वैसे ही रोग आदि विपत्तियों के बिना कृतकर्मों पर विश्वास नहीं होता ।
४३. न गदास्तिकताऽत्र भवेत्तदिह, कृतकर्म न कोऽपि विचारयतेः॥
न च पश्यति कोपि कदापि नरः, सुकृतं मरणं परलोकगतिम् ।। ..' इस विश्व में यदि रोगों का अस्तित्व नहीं होता तो अपने किये हुए कर्मों को कौन स्वीकार करता और कौन अपने सुकृत, मृत्यु तथा परलोक की ही चिन्ता करता?
४४. यदसातककर्म भवेन्न तदोत्तरति श्रितखं जगतां नयनम् ।
कथमुन्मिषताश्रियमाश्रयते, कमपि प्रशमेन च पश्यति किम् ।। .. यदि असात-वेदनीय कर्म नहीं होता तो आकाश में लगी हुई लोगों की आंखें न तो नीचे उतरतीं, न खुलतीं और न शांति से औरों को देख ही पातीं। ४५. अत एव बलात् प्रतिबोधयितुं, वितथाभिमुखात प्रतिकर्षयितम । अपवर्गपथं प्रणिवेशयितुं, ज्वर एतमृषि परिरम्भयते ॥
ऐसा प्रतीत होता है कि मानो भिक्षु को अकस्मात् प्रतिबोध देने के लिए, सत्य की ओर आकृष्ट करने के लिए तथा मोक्ष मार्ग में स्थापित करने के लिए ही यह ज्वर ऋषि भिक्षु का आलिंगन कर रहा है ।