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पंचमः सर्गः
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११३. आनन्दसिन्धुलहरीप्रसृता तदानी,
तं सेवते परिचिता जनताऽभ्युपेत्य । चञ्चचचटुत्वचलचारुचकोरचक्र, चन्द्रं मरीचिरुचिरं सुचिरादिवेक्ष्य ॥
उस समय राजनगर में आनन्द की लहर व्याप्त हो गई। जो उनसे परिचित थे, वे श्रावक आए और उनकी उपासना में ऐसे तल्लीन हो गए जैसे चिर प्रतीक्षित चन्द्रमा की मनोहारी किरणों को देखकर आनन्दित, प्रियालापी, चञ्चल और सुन्दर चकोरों का समूह तल्लीन हो जाता है। ११४. ते श्रावका अपि गभीरसुधीरधुर्या,
यत्संनिधौ सुविधिनाध्युषिताः समेत्य । दूरप्रदेशपरियातपितुः समीपे, स्वात्मीयबालकगणा इव सानुरागाः ॥
वे गंभीर और धीराग्रणी श्रावक अनुरागपूर्वक उनके पास आकर विधिपूर्वक वैसे ही बैठ गए, जैसे कि दूर देश से समागत पिता के पास उनके बालकगण आकर प्रेमपूर्वक बैठ जाते हैं। ११५. केचिद् वयं हि निविडाः फिल'कर्णधाराः,
प्रोढा इति स्वकमहत्त्वनिदर्शनार्थम् । सङ्केत्य तान् जगदुरज्ञहतान्धभक्ता, एते भवत्सु भगवन् ! परिशङ्कमानाः ॥
कुछेक अंधभक्त श्रावक स्वयं को समाज के वरिष्ठ कर्णधार मानते हुए अपनी प्रौढता और महत्त्व प्रदर्शित करने के लिए उन श्रावकों की ओर संकेत करते हुए बोले--'भगवन् ! ये आपके आचार-विचार के प्रति सशंक हैं।' ११६. शङ्काऽद्य नो नहि मनाक् परिरक्षणीया,
पृच्छन्तु मुक्तमनसा तरसा यथेष्टम् । निष्काश्यतां च भवताप्यवतावदातं, पञ्चायति विदधतीति मुधव केऽपि ॥
फिर श्रावकों की ओर उन्मुख होकर बोले--'अब आप लोग जो कुछ पूछना चाहें, वह मुक्तभाव से पूछे और तनिक भी शंका को अपने हृदय में न रखें ।' फिर मुनि भिक्षु से बोले -'भगवन् ! आप भी इनकी रक्षा करते हुए इनकी शंकाओं का निराकरण करें।' इस प्रकार कुछेक श्रावक व्यर्थ ही पंचायत करने लगे, बकवास करने लगे। १. किल-इवार्थे ।