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पंचमः सर्गः
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वे श्रावक जैनागमों से अनेक प्रमाणों को निकाल- निकाल कर भिक्षु स्वामी के समक्ष विनयपूर्वक वैसे ही प्रस्तुत करने लगे जैसे न्यायालयों में न्यायाधीश के समक्ष वकील कानूनी धाराओं को प्रस्तुत करते हैं ।
१२१. साधोः पथादपसृताः प्रसृता दुरध्वे, दिङ्मूढवत्तत इतः स्वयमेव तावत् । अस्मादृशान् यदि तथा न हि निर्मिमीरन्, मन्यामहे तदपि वो महती कृपा नः ॥
'इन शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि आप दिग्मूढ बन, इधर-उधर भटकते हुए साधना पथ से दूर होकर उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं। यदि आप, कम से कम, हमें उन्मार्ग में न ले जाएं तो हम लोगों पर आपकी यह महती कृपा होगी ।'
१२२. नो साधुता भवति भाति विभाति कापि, वेषेन किं धरति यं च विदूषकोऽपि । जीवो न कि जगति जीवनशक्तिशून्यः, शृङ्गारितोऽपि करवीर' निवेशनीयः ॥
'यदि आचारशून्य वेषमात्र से ही साधुता होती या शोभित होती तो साधुवेश तो एक विदूषक भी धारण करता है । परन्तु वेशमात्र से क्या ? क्या वस्त्राभूषणों से अलंकृत होने पर भी चेतनाशून्य जीव को श्मशान में नहीं ले जाया जाता ?"
१२३. रम्यो भवान् भवति चारुविरागताऽपि,
तत्सङ्गतस्त्वमपि किन्तु न साधु साधुः । दोषाभिषङ्गमरतोऽमरतोऽपि महाः,
कि नो कलङ्ककलितो ललितोऽपि चन्द्रः ॥
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'आप रम्य हैं। आपमें विरागता भी अच्छी है । किन्तु इस शिथिल संघ के सहवास के कारण आप भी यथार्थ में साधु नहीं रहे । ललित चंद्रमा देवताओं द्वारा पूज्य होता है । परन्तु रात्री के साथ संगमरत होने के कारण क्या वह कलंकित नही हो जाता ?'
१. करवीरम् - - श्मशान ( श्मशानं करवीरं स्यात् - अभि० ४।५५) । २. दोषा - रात्री ( उषा दोषेन्दुकान्ता - अभि० २ (५७) ।