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पंचमः सर्गः
१६७ १३५. कि स्वःकलाविकलितोऽपि कलाधिनाथ,
उद्योतते द्युतिधरानितरान् विदध्यात् । चैतन्यचिह्नच लितः किमु चेतनः स्यात्, स्वान्योपकारकरणं करणं कदापि ॥
'क्या दिव्य कलाओं से विकल चन्द्रमा कभी उद्योतित हो सकता है ? क्या वह दूसरों को उद्योतित कर सकता है ? क्या अपना और पर का उपकार करने में साधनभूत करण -शरीर चैतन्य-विकल होकर प्राणवान् हो सकता है ?' १३६. एवं गृहीतपरिहीनमहावता ये,
यूयं विना चरणतश्चरणाञ्चितानाम् । आत्मात्मनामपि च कटकलाकलाप:. कुत्रापि नो तरणतारणतां तनुध्वम् ।
'इसी प्रकार स्वीकृत महाव्रतों का परिहार करके संयम साधना के अभाव में न तो आप अपना और न आपको संयमी मान पूजने वालों का ही मिथ्या कला-कलापों के द्वारा उद्धार कर सकते हैं।'
१३७. तस्माद् दयस्व दयनीयदशां प्रदृश्य,
त्रायस्व विश्वमखिलं निखिलं' विधेहि । अभ्यर्थयाम उचितोचितचैत्यचिन्ताच्चकस्त्वमेव विभुरार्यविचार्यवर्यः॥
'इसलिए धर्मशासन की इस दयनीय अवस्था को देखकर आप दया करें और धार्मिक जगत् को खोखलेपन से रहित कर उसकी रक्षा करें। हमारी इस विवेक एवं विचार पूर्वक की गई उचित प्रार्थना को स्वीकार करें, क्योंकि प्रशस्त विचारों के धनी आप ही ऐसा करने में समर्थ हैं।'
१३८. सम्यक्त्वदर्शनमृते नहि सद्विवेको,
नो तं विना सुचरितं जिनसम्मतं च । नाना सुमन्दिरमणिर्महिमन्दिरं कि, नो तद्धिरुक' तिमिरसन्ततिसन्निकारः ॥
'हे मुने ! सम्यक्दर्शन के अभाव में सम्यग् ज्ञान नहीं होता और सम्यग् ज्ञान के अभाव में जिनेश्वर देव द्वारा सम्मत संयम नहीं होता। जैसे दीपक के बिना भूतल-स्थित मन्दिर में प्रकाश नहीं होता और प्रकाश के बिना तिमिर का भी नाश नही होता।' १. निखिलः-शून्यता रहित, खोखलेपन से शून्य । २. नाना-बिना। ३. हिरुक् -बिना (अभि० ६।१६३)