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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १२४. कल्पापकल्पकथनं विधिवद् यथार्थ,
संवीतमेव यदि वोच्यत उत्प्रतीपम् । पोल्लप्रकाशनभिया च निजस्य सम्यक, पालिः पुरैव सलिलाद् भवता निबद्धा ॥
'साधुओं के लिए क्या कल्प्य और क्या अकल्प्य है ? आदि-आदि, तो आप लोगों ने (आज कल के साधुओं ने) बतलाना ही बन्द कर दिया। यदि कहीं बतलाये जाते हैं तो वह विपरीत रूप से, जिससे कि अपनी पोल खुलने का भय न रहे। इस प्रकार आपने पानी आने से पहले ही पाल बांध दी
१२५. स्वप्नक'प्रबोधनविचेष्टनमाक्रियेत,
कि जाग्रतां जगति जागरणं गरीयः । चेतं प्रचेतमभितोऽभ्युपयाथ यूयं, दोषांस्ततः किमिव कि प्रतिपादयामः ।।
'आपने जान-जानकर दोषों को स्वीकार किया है और अपने चारों ओर उनका ढेर लगा दिया है। हम किन-किन का प्रतिपादन कर । सोये हुए व्यक्ति को जगाने का प्रयत्न किया जा सकता है, परन्तु जागते हुए को जगाना कसा ?'
१२६. चारित्रधर्मजनकाय भवद्भिरित्थं,
दत्तो जलाञ्जलिरलोकवलीक'वासात् । वन्दामहे कथमतो भवतो भवार्ताः, पूजा गुणानुगुणिता जिनशासनेषु ॥
_ 'असत्य रूपी वलीक (ओलती) पर निवास करते हुए आप लोगों ने चारित्रधर्म रूप पिता को तो जलाञ्जली ही दे दी है। अतः भवभ्रमण के भय से भयभीत होने वाले हम आप लोगों को वन्दना कैसे करें ? क्योंकि गुणानुरूप पूजा ही जिनशासन में अभिहित है।'
१२७. शास्त्रावगाहनतया परिचीयते वः,
श्रद्धापि शास्त्रविहिता महिता न मान्यः । संवर्तते क्व च तदा श्रमणत्वसत्त्वं, बीजं विना पि किमु पुष्पफलोपपत्तिः ॥
१. स्वप्नक्–सोने वाला (स्वप्नक् शयालुनिद्रालुः-अभि० ३।१०६) । २. वलीकः-ओलती, छप्पर का किनारा।