________________
पचमः सगः
१५७
९८. आत्मप्रबोधसविरोधनिरोधनिष्णा',
माङ्गल्यमग्नसमविघ्ननिघातनिघ्नाः । प्रारम्भतो ललितलाक्षणिकैरलक्ष्या, इष्टा बभूवुरखिलाः शकुनास्तदानीम् ॥
आत्म-जागरण के विरोधी कारणों का निरोध करने में दक्ष, समस्त विघ्नों पर प्रहार करने के लिए आज्ञाकारी, अत्यन्त मांगलिक, शुभ शकुन हुए जो कि प्रारम्भ में शकुन-शास्त्रविशारदों से अविदित होते हुए भी मूकरूप में भावी सफलता की ओर संकेत कर रहे थे ।
९९. गन्धद्विपेन्द्रगमन: कमनक्रमक'
देशानवाहनसमानमनोज्ञदृष्टिः । अध्येतुमाशु सहजान्वितशल्यशत्रु-, गच्छन्निवाऽखिलजनैरवतर्यते स्म ॥
__ वे गंधहस्ती की गति से गमनशील, ब्रह्मचर्य की शक्ति से युक्त, ईशानेन्द्र के वाहन के समान मनोज्ञदृष्टि वाले मुनि भिक्षु राजनगर की ओर जा रहे थे । तब सभी लोगों ने ऐसी वितर्कणा की कि मानो युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ अध्ययन करने जा रहे हैं ।
१००. उद्योगितां प्रसरितां मुखमण्डलं च,
प्रोत्साहतां न सहते सुभगं शरीरम् । कि कारणं किमिति दर्शकमानवानामन्योन्यमेवमभितो मधुरोऽनुलापः ।
__उस समय उनके चेहरे से टपकती हुई उद्योगिता, शरीर से टपकता हुआ अत्यन्त उत्साह देख लोगों के मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प पैदा हुए। वे परस्पर मधुर आलाप करने लगे- क्या कारण है ? आज ऐसा क्यों हो रहा है ? आदि-आदि ।
१०१. योऽसौ विलोकिततमो बहुधा परन्तु,
नेदृग दशाऽस्य नयनातिथितां गता नः । एवंविधः कलकल ध्वनिरुल्ललास,
सिद्धि गमिष्यति नवामपि कामऽपूर्वाम् ।। १. निष्णः-चतुर । २. निघ्नः-पराधीन (नाथवान् निघ्नगृह्यको-अभि० ३।२०)। . ३. कमनक्रम:--ब्रह्मचर्य की शक्ति । ४. कलकल:-कोलाहल, भनभनाहट (कोलाहलः कलकल:-अभि० ६।४०)।