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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् लोगों में यह भनभनाहट होने लगी-'हमने भिक्षु को अनेक बार देखा है, परन्तु इनका ऐसा रूप हमने पहले कभी नहीं देखा। यह अवस्था इस बात की द्योतक है कि इनको अपूर्व नई सिद्धि उपलब्ध होगी।'
१०२. आवेदयन्तु घटना घटितां यथार्थी,
पृच्छंति तत्र मनुजा बहुसंशयानाः । एष क्व याति किमिवात्र निबन्धनीयं, कर्णेष कर्णकलिताश्च मिथो लपन्ति ॥
कुछेक श्रावक यथार्थ घटना से अपरिचित होने के कारण संशयशील थे । वे एक दूसरे के कानों पर कान (मुंह) लगा कर परस्पर पूछने लगे-- वास्तव में बात क्या है ? ये भिक्षु कहां जा रहे हैं ? इसमें क्या रहस्य छिपा है ? आदि-आदि ।
१०३. प्रत्युत्तरन्ति तरसा प्रसृता च वार्ता,
युष्माभिरन्तरगतैर्न कथं विवेद्या। एते चरित्रशिथिला इति कुत्सयद्भिस्त्यक्तेनपूर्बहुजनैननु वन्दनाऽपि ।।
१०४. तान् बोद्धमुद्यतमतिर्गुरुभिः प्रणुन्न,
एष प्रयाति मुनिभिक्षुरपारकोत्तिः । आचार्यशासनरतो विरतोऽभियोगैरयोगयुगान्तरगतिः प्रगतिप्रकर्षः ।। (युग्मम्)
इस प्रकार पूछने पर कुछ श्रावक उत्तर देते हुए बोले-'आप सभी अन्तरंग श्रावक हैं । बात इतनी फैल चुकी है, फिर भी आप नहीं जानते ! राजनगर के श्रावकों ने इन साधुओं को आचार-शिथिल जानकर, इनकी कुत्सा करते हुए वंदन-व्यवहार भी छोड़ दिया है।'
'अतः आचार्य के आज्ञाकारी, विरत, अत्यन्त उत्साही, ईर्यापूर्वक गमनशील, प्रगति परायण, अपारकीति के धनी मुनि भिक्षु आचार्य रघनाथजी द्वारा प्रेरित होकर उन श्रावकों को प्रतिबोध देने के लिए जा रहे हैं।'
१. ईनपू:-राजनगर । २. अभियोगः-उत्साह (अभियोगोद्यमौ प्रौढिरुद्योग अभि० २।२१४) ।