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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ४०. श्राद्धस्तथाविधकृति परिलोक्य केचि
दन्येऽपि तत्त्वविकलाश्च तथा पतेयुः। तत्पातनश्लथितवृत्तविवर्द्धने वा, पुष्टावलम्बनमयाः खलु ते भवेयुः॥
तत्त्वज्ञानी श्रावकों द्वारा शिथिलाचारी साधुओं की की जाने वाली सेवा-शुश्रूषा को देखकर तत्त्वज्ञानविकल लोग उसी जाल में फंसने लगेंगे। उनको उस जाल में फंसाने, शिथिलता को वृद्धिंगत करने में वे तत्त्वज्ञानी श्रावक ही पुष्ट आलंबन बनते हैं। ४१. तस्माद् दृढान्यमुखदोषसमर्थिकाभि
स्तद्वन्दनादिभिरलं त्विति शंसितं तः। श्रद्धालवोऽपि निविडा निविडानुभावाः, कीदृविचाररमणा: परमार्थलक्ष्याः ॥
तथा शिथिलाचारी मुनियों को की जाने वाली वंदना आदि से अन्य मुख्य दोषों का भी समर्थन होता है, वे दोष बढ़ते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर के आनन्द आदि श्रावकों ने शिथिलाचारी मुनियों को वंदना आदि न करने का निश्चय किया था। जो श्रावक दृढ और परिपक्व अनुभव वाले होते हैं वे ही सुविचार संपन्न एवं परमार्थदृष्टि वाले होते हैं।
४२. निन्दन्तु वा जगति न: परिकीर्तयन्तु,
लक्ष्मीः स्थिरा भवतु वाऽस्थिरतामुपेतु । प्राणाः प्रयान्तु यदि वा विलसन्तु सम्यक्, सत्यात् कदापि चलिता न भवाम एव ।
अतः संसार में चाहे हमारी निन्दा हो या स्तुति, लक्ष्मी स्थिर रहे या अस्थिर, प्राण जायें या रहें, पर जो सत्य मिला है, उससे परे हमें कभी भी नहीं होना है।
४३. यत्संनिधौ हि सुकृतं भवतीति नैवं,
रुष्टा अपि स्वकरणी नहि नेतुमीशाः । तस्मादसङ्ख्यविरताविरता इवाऽत्र, गेहे स्थिता हि सुकृतं रचितुं समर्थाः॥
साधुओं की सन्निधि में ही धर्मध्यान होता है, ऐसी बात नहीं है । ये मुनि रुष्ट हो जायेंगे तो भले हों। ये हमारी कृतकरणी को विफल नहीं बना सकेंगे । साधुओं की अनुपस्थिति में भी द्वीपान्तरों में असंख्य तिर्यंच श्रावक हैं । हम भी घर में बैठकर धर्मध्यान करने में समर्थ हैं।