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पंचमः सर्गः
१४९ ६७. कुर्वन्ति यत् किमपि नो गुरवोऽभ्युपेता
स्तत् सर्वमेव सुषमाञ्चितमभ्युपेयम् । तथ्येषु तथ्यमुररीकरणीयमस्मादृक्षरणुवतिजनैन च शङ्कनीयम् ॥ ___ कुछ सोचते, हमारे द्वारा अभिमत गुरु जो कुछ करते हैं, उसे उचित मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए। हम जैसे अणुव्रती श्रावक उसे तथ्यपूर्ण मानकर उसमें ननुनच और शंका नहीं करनी चाहिए।
६८. सम्यक्त्वभूषणगुणेषु जिनैरजल्पि,
निःशङ्कता हि परमोच्चगुण: प्रगुण्यः । तत्तेषु संशयपराः प्रकृते: परस्तान्, मस्तिष्कशक्तिशटिताः प्रशठा नटा वा ॥
भगवान् ने भी निःशंक रहने को सम्यक्त्व का एक परम उच्च गुण माना है, अतः जो संशयशील होता है वह अपने पागलपन, मस्तिष्क की खरावी, मूढता एवं अभिनय को ही प्रगट करता है ।
६९. अन्येऽपि केऽपि च कुतोऽपि च यत्र तत्र,
स्वाचार्यदूषणनिरीक्षणलक्षणा ये। तेऽपि प्रकुण्ठितधियो हि तथाविधाश्च, संसारसागरनिमज्जनमेषमाणाः ॥
कुछ व्यक्ति कहते-'जो कोई कहीं, जहां-तहां अपने आचार्य के दूषणों को देखते रहते हैं, उनकी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई है। वैसे मनुष्य संसार सागर में डूबने के मार्ग की गवेषणा करते हैं । ७०. एषां विदन्ति विदुराः स्वयमेत एव,
नैतत्प्रपञ्चपतनं गृहिणां शुभाय । अस्मादृशैर्भगवतामभिवन्दनीयो, वेषो हि कि तदितराश्रवदृष्टिपातैः॥ . इन साधुओं की ये साधु स्वयं जानें। हम गृहस्थों को तो इनके प्रपञ्च में पड़ना अच्छा नहीं है । हमारे लिए तो साधुवेश वन्दनीय है । दूसरे दोषों को देखने से हमें क्या प्रयोजन ?
७१. प्रत्यचिरे तदनुतांस्तरसा तदानी
मालोचलोचनविचक्षणलक्षणास्ते । नैवं कदापि भवितुं भुवनेषु शक्यो, यत् स्वीकृतोऽपि कुगुरुन विवेचनीयः ॥