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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
उन शिथिल साधुओं ने इन श्रावकों को विवश करने के लिए नाना प्रकार के मार्ग अपनाये पर सफल नहीं हुए, तब उनकी स्त्रियों को बहका कर, अपने पक्ष में कर, घर में क्लेश पैदा कर दिया और इस प्रकार पारिवारिक क्लेश से भी उन पुरुषार्थी श्रावकों को अछूता नहीं छोड़ा।
८७. यद्यन्मिथो विनिमयस्थगनप्रकारैः,
कां कां न दुर्व्यवहति प्रतिधित्सवस्ते । तां तां त एव सुविदन्ति परन्तु लब्धधर्माध्वनि स्थिरतराः सुतरामवात्सुः ॥
__ जीवन व्यवहार की आवश्यक वस्तुओं के आदान-प्रदान में भी रुकावटें डालकर ज्यों-त्यों कर उन्हें उनके मार्ग से विचलित करने की चेष्टाएं की गई। अपनी साध्यसिद्धि के लिए और क्या क्या दुर्व्यवहार किये गये यह तो वे ही जान सकते हैं, पर सत्पथ को उपलब्ध वे श्रावक अपने मार्ग पर और अधिक अटल हो गए।
८८. पावस्थवन्दनमुचोऽथ विचिन्तयन्ति,
ये त्वागताः श्लथतमाः श्लथतां प्रचेतुम् । चेष्टन्त एव यतयस्तदुपासकास्तान्, साहाय्ययन्ति तदितः किमु नः शुभाशा ॥
पार्श्वस्थ मुनियों की वन्दना छोड़ने वाले उन सत्यानुयायी श्रावकों ने सोचा, जो मुनि यहां आए हैं, वे शिथिलतम हैं और अपनी शिथिलता को ढांकने का प्रयत्न कर ही रहे हैं। उनके उपासक उनकी इस प्रवृत्ति में सहयोग दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारे कल्याण की क्या आशा की जा सकती
८९. ये शिक्षका अपि च शिक्षकतां विहाय,
प्रान्तोत्पथे प्रथयितुं प्रयतन्त इत्थम् । कि संस्क्रियेत सकलान् सदृशीप्रकृत्य, लुण्टाकतां यदि सरन्ति सदा शरण्याः ।।
यदि शिक्षक अपने शिक्षकपन को छड़कर उन्मार्ग में ले जाने वाले हो जाएं और सबको अपने जैसा बना कर संस्कारित कर दें तो उनसे क्या लाभ हो सकता है ? यदि डाकुओं का निग्रह करने के लिए जाने वाले स्वयं, डाकू बन जाएं तो फिर शरण देने वाला कौन होगा ?