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पंचमः सर्गः
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किसी वस्तु का अधिक प्रचलन ही उस वस्तु के महत्त्व का सूचक नहीं है । यदि उसी को महत्त्व का सूचक माना जाए तो व्यसनी महत्त्वशाली माने जायेंगे क्योंकि वे अधिक संख्यक हैं तथा व्यसनमुक्त जो दो-चार हैं, अत्यल्प संख्या में हैं, उनका महत्त्व नहीं होगा।
७६. शुष्क सरस्तदपि मे विति संविभाव्य,
कस्तन्मृदं मृदुतरामपि संस्वदेत । को वात्मसंभविगदं विगदं न कुर्यात्, को वा निपीतगरलं निरलं' न जह्यात् ॥
पानी न होने पर भी 'तालाब मेरा है'- ऐसा मानकर कौन चतुर व्यक्ति उसकी मृदु गीली मिट्टी खायेगा ? कौन अपने शरीर में पैदा होने वाले रोग को अपना मानकर दूर नहीं करेगा और कौन अज्ञात दशा में पीये हुए गरल का ज्ञान होने पर उससे छुटकारा नहीं पाएगा ? (वैसे ही सद्गुरु के भ्रम से स्वीकृत कुगुरु को कौन चतुर आदमी नहीं छोड़ेगा ?)
७७. शङ्कावतां समवधानविधां विनैव,
येषां शिरोविकृतमित्यपि भाषणं तत् । मिथ्याङ्करोपणमतोऽत्र परत्र ते हि, तद्वत् कलङ्ककलिता भवितुं यतन्ते ।
__ शंकाओं का समाधान किए बिना ही जो व्यक्ति शंकाशील व्यक्तियों पर 'इनका मस्तिष्क अस्त-व्यस्त है,' ऐसा मिथ्या कलंक लगाते हैं, वे भविष्य में स्वयं वैसे कलंक से कलंकित होने का प्रयत्न करते हैं।
७८. पर्याप्तमेतदनगारप्रपञ्चपात
रेवं प्रलापि मनुजाः प्रतिपत्परास्ताः । न क्षेमयोगकरणे प्रभविष्णवस्ते, लोकद्वयेऽपि परिहासपदं प्रविष्टाः॥
'साधुओं के प्रपंच में न पड़ना ही श्रेयस्कर है, ऐसा कहने वाले लोग बुद्धिशून्य, योगक्षेम करने में असमर्थ और उभयलोक में परिहास के पात्र बनते हैं।
१. निरलम्- अज्ञात दशा में । २. प्रतिपत्-बुद्धि ।