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पंचमः सर्गः.
१४३ ४४. श्रद्धाधनविजनजिनराजराज्या,,
सम्यक्त्वदूषणहरः समशीलवृत्तः। हेया कुसङ्गतिरियं भृतदोषपोषा, संसर्गजा जगति दोषगुणा भवन्ति ।
'संसर्ग से ही दोष और गुण होते हैं' नीतिकार की इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए उन सम्यक्त्व के दूषणों का परिहार करने वाले भव्यजन श्रद्धालु श्रावकों ने राग-द्वेष से परे होकर शिष्टतापूर्वक पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधुओं के सम्पर्क को दोष बढ़ाने वाला जानकर छोड़ने का निर्णय किया। ४५. उत्सूत्रिणः स्वयमिमे कुपथं प्रविष्टा,
अस्मादृशान् किमुत तारयितार एते । घोरे वने प्रपतिता जनुषान्धपान्थाः, फि ते हि विस्मृतपथान सुपथं नयेयुः ॥
ये मुनि स्वयं ही उत्सूत्र की प्ररूपणा करने वाले और उन्मार्गगामी हैं। ये हम जैसों का क्या उद्धार करेंगे ? क्या सघन वन-प्रदेश में प्रविष्ट जन्मान्ध व्यक्ति भूले भटके पथिकों को सही मार्ग दिखा सकते हैं ? ४६. येऽस्माभिरभ्युपगता गुरवो न हेया,
भ्रष्टव्रता अपि कदाऽपि यथा तथा वा। नेदृक्कदाग्रहपरैर्भवितब्यमेव, सत्याग्रहैः सहृदयैः परिवर्तनीयम् ॥
हमने जिनको गुरुरूप में स्वीकार कर लिया, वे कैसे भी हों, चाहे वे व्रतों का पालन न भी करते हों, फिर भी उन्हें छोडना नहीं चाहिए। सत्यान्वेषक एवं विवेकी पुरुष को ऐसा दुराग्रह नहीं रखना चाहिए । गुरु को बदलने में नहीं हिचकना चाहिए ।
४७. लोकापवादहृतये हृदयेन हृद्यान्,
सांसर्गिकानुपगतान् परिपृच्छयमानाः । नो केऽपि सत्समवधानकरा अभूवअन्धानुकार्यकलया किमु हृनिवेशः ।।
लोकापवाद से बचने के लिए सम्पर्क में आने वाले विद्वान् व्यक्तियों से वे मनोयोगपूर्वक विचारों का आदान-प्रदान करते रहते, परंतु अन्धानुकरण की प्रवृत्ति में रत रहने के कारण वे आगन्तुक विद्वान् न तो शंकाओं का समाधान ही कर पाते और न अपनी बात को हृदय में ही बिठा पाते।