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पंचमः सर्गः
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महापुरुषों के लिए ऐसा जन-प्रवाद, संघ का टूटना, निंदा और प्रतिघात जघन्यतम होता है। इस प्रकार शिथिलाचार की भावना का फैलना भी क्या गुरु के गौरव का नाश करने वाली नहीं होती?
५२. तस्मिन्नुपर्युपरिचिन्तनचित्रचित्तः,
प्रत्यायिता निजमते प्रथमाः प्रसिद्धाः । सन्तः प्रकाण्डकृतिनो बहुवारमैक्ष्य, सम्प्रेषितास्तदवबोधनबद्धकक्षाः ॥
राजनगरीय श्रावकों की इस उलझन में उलझे हुए आचार्य ने अनेक बार अपने गण के गणमान्य, ख्यातिप्राप्त, विश्वस्त एवं विद्वान् साधुओं को वहां भेजा जो उन श्रावकों को समझाने के लिए कटिबद्ध थे ।
५३. ते सत्यसुन्दरशिशोर्गलघोटकाः स्व
पक्षान्धकृत्यकरणाचरणाञ्चिचित्ताः। तर्कोन्नताः सुमधुरा अपि तत्स्वपाशे, प्रक्षेपणाय सफला ननु केऽपि नासन् ॥
राजनगर भेजे गये साधु तर्क-निपुण एवं सुमधुर भाषी होते हुए भी पक्षपात की तमिस्र वृत्ति वाले एवं सत्य की भ्रूण हत्या करने वाले होने के कारण वास्तविकता से परे रहे । अतः वे उन ज्ञान-प्राप्त श्रावकों को अपने जाल में फंसाने में सफल नहीं हुए।
५४. द्वौ द्वौ मिथः प्रगुणितो प्रभवन्ति नित्यं,
चत्वार एव गुणितेषु जनेषु तांस्तान् । त्रीन् पञ्च वा कथमपीह कथापयेच्चेद्, ब्रूयुः शठान् प्रति विहाय मनीषिणः के ॥
दो को दो से गुणन करने पर चार ही होते हैं । पर यदि कोई तीन या पांच कहलाना चाहे तो मूर्ख या पक्षपात के दुराग्रह में फंसे हुए व्यक्ति के अतिरिक्त कौन समझदार व्यक्ति ऐसा कह सकता है ?
५५. मिथ्योत्तररतरलं तरलायमानं,
जाजायते न सुमनः सुमनः कदाऽपि । तस्मात् स्थितानऽवितथानुपलक्ष्य केचित्, तत्पक्षगा जितजिता इति घोषयन्ति ॥