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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३२. मस्तिष्कशक्तिसहिताः प्रविवेचयन्तो,
व्याचक्षते समुदिताः श्रमणा इमे नो। क्व प्रोच्यतेऽन्तरकथा हृदयान्तरस्था, संश्रावणाय समयोऽनुसमीक्षणीयः॥
गहराई से सोचकर, विचार-विमर्श कर सभी ने यह कहा-ये साधु साध्वाचार से युक्त नहीं हैं। हम अपने मन की अन्तर्व्यथा को कहां प्रगट करें ? उसे अभिव्यक्त करने के लिए हमें अनुकूल समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
३३. आस्तां यदाचरणचिन्तनताविचिन्ता,
सम्यक्त्वसत्कमपि नास्तिकतोदरस्थम् । नाप्तोक्ततत्त्वतुलिताऽपि विचारधारा, सारम्भडम्बरपरिग्रहगोचरत्वात् ॥
इन साधुओं में साधुत्व की कल्पना तो दूर की बात है, पर सम्यक्त्व की भी कोई भित्ति नहीं है। इनकी विचारधारा भी आरम्भ, परिग्रह एवं आडम्बर से सनी हुई होने के कारण वीतराग तत्त्वानुगामिनी नहीं है। ३४. ते श्रीजिनागमरहस्यविदः प्रबुद्धाः, खिन्नास्तदाचरणचिन्तनताऽस्थिरत्वात् । आचारशून्यगुरवः परिवर्जनीयाः, पारेच्छुकः प्रवहणं स्फुटितं यथा हि ।।
इस तरह तात्कालिक श्रमण संघ की आचार एवं श्रद्धा विषयक स्खलनाओं से खिन्न होकर वे जैनागमों के रहस्यवेत्ता श्रावक यह सोचने लगे कि भवसागर से पार जाने के इच्छुक व्यक्तियों को चाहिए कि वे आचारविहीन साधुओं को वैसे ही छोड़ दें जैसे समुद्र का पार पाने के इच्छुक व्यक्ति टूटे-फूटे जहाज को छोड़ देते हैं।
३५. राजीं निरीक्ष्य रचयाम इहात्महस्त
न्यासं तदा मिलति वारुणदीर्घगर्ता । श्रेयान्न सङ्गम उदारधियाममीषां, प्रेयानपि प्रथिमदुर्गतिदुर्गदर्शी ।
___ जहां हम थोड़ी-सी दरार समझ कर हाथ रखते हैं तो वहां पर हमें बड़े-बड़े गर्त मिलते हैं, अतः इन साधुओं का ऊपर से मीठा लगने वाला यह संसर्ग भी विशाल दुर्गति के दुर्ग को दिखाने वाला और अश्रेयस्कर ही होगा।