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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् राजनगर वास्तव्य पौरवंशीय गगन के कई चमकते सितारे श्रावक केवल ऐहिक धन-संग्रह के कार्य में ही निपुण नहीं थे, किन्तु आध्यात्मिक रत्नसंग्रहण में भी बुद्धिमान् थे ।
वे परीक्षा के दिनों में पढ़ने वाले विद्यार्थी की भांति विकासशील, बुद्धि और विवेक को धारण करने वाले श्रावक स्वयं सूत्रों का अध्ययन करने लगे और एकलव्य के समान अश्रान्त होते हुए अपने कार्य में अनवरत जुटे रहे।
२५. अग्रामसूत्रपठनाद्रसतो रसज्ञा,
वाचं च वाचमभितः परिवाचयन्ति । मित्राणि मित्रलिखितोत्तमलेखसम्भृत्, पत्राणि सङ्गतिमितान्यऽसकृद् यथा हि ॥
ज्यों-ज्यों वे सूत्र पढ़ते जाते, त्यों-त्यों वे उन सूत्रों के सरस रस के रसिक होते हुए उन्हीं सूत्रों को बार-बार पढ़ते रहते, जैसे कि किसी अत्यन्त स्नेही मित्र के लिखे हुए सुन्दर (चिर प्रतीक्षित) आलेख पत्र को पाकर एक मित्र उसे बार-बार पढ़ता है।
२६. आकस्मिकागमविलोकनतो नितान्त
मभ्यन्तरावरणमोक्षणमाशु जातम् । षट्खण्डमण्डलमहीपतिदण्डरत्नाद्, वैताढयगह्वरकपाटविघाटनं वा ॥
ऐसे शास्त्रों का निरन्तर चिन्तन-मनन करते रहने के कारण उनकी अन्तरात्मा पर आया हुआ अज्ञान का आवरण वैसे ही दूर हो गया जैसे कि सार्वभौम चक्रवर्ती के दण्डरत्न से वैताढ्य गिरि की गुफाओं पर लगा हुआ कपाट का आवरण दूर होता है, कपाट खुल जाता है ।
२७. तेषां तदैव वरमानसमन्दिरेषु,
तत्त्वावलोकलतिका प्रसरीसरीति । यत्काकिनीमणिविनिर्मितमण्डला, वैताढयपर्वतदरीषु विशिष्टवर्चः॥
इस प्रकार निरंतर शास्त्राभ्यास करते रहने से उन्हें तत्त्व की प्रकाशकिरण प्राप्त हुई, जिसने उनके मानस-मंदिर को उसी प्रकार आलोकित कर दिया जैसे चक्रवर्ती के काकिनी मणीरत्न से निर्मित प्रकाश-मंडलों से वैताढय गिरि की तमिस्र गुफाएं आलोकित होती हैं।