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पंचमः सर्गः
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उस नगर में मनुष्यों और देवों से अभिनन्दनीय ओसवंशीय रसीले लोग निवास करते थे । वे बहुत ही सम्पन्न थे । वे वृद्धि (लेन-देन), विश्वास, न्याय, नीति एवं पवित्र रीति से व्यापार करते हुए सुख एवं समृद्धि से जीवन व्यतीत करते थे।
२१. प्राग् वाटवंशिपुरुषा अपि तत्र मान्या:,
श्रीदाः सदाधितधना धनदायमानाः । नो किन्तु ते त्रिशिरसो न पिशाचवन्तो, नो रुद्रसौहृदकरा न तथा कुबेरा: ॥
पूर्वकाल में वहां पोरवंशीय लोग भी मान्य थे। वे धनाढय, धन का वितरण करने वाले तथा धनद-कुबेर के सदृश थे। परंतु वे कुबेर की भांति त्रिशिरा-तीन शिर वाले, पिशाचवान् और रुद्रों से मित्रता करने वाले नहीं थे।
२२. जैना निजप्रतिपदा सुहृदा स्वकार्ये,
प्रायो रघुश्रमणशेखरसम्प्रदायाः। केचित् त्वणुव्रतरता विरताः स्वरीत्या, केचिद् विकाररहिताः सहिता: क्रियाभिः ।।
वे अपनी प्रतिपत्ति (मान्यता) के अनुसार जैन थे और अपना-अपना कार्य करते हुए पारस्परिक सौहार्द से रहते थे। वे प्रायः आचार्य रघुनाथजी के संप्रदाय के अनुयायी थे। उनमें से कुछ अणुव्रती, कुछ अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार वैराग्यवान्, कुछ अन्यान्य विकारों-दोषों से वियुक्त और धार्मिक क्रियाओं से युक्त थे।
२३. तत्तन्नरेन्द्रनिगमान्तरवासिनस्ते,
प्रागवाटवंशविशदाम्बरतारताराः । नो केवलैहिकवसुप्रचये हि विज्ञा, अध्यात्मरत्ननिचयेऽपि ततः प्रकृष्टाः ॥
२४. श्रद्धालवो विकचबुद्धिविवेकपमाः,
श्राद्धाः स्वयं हि सुहृदः पठितुं प्रवृत्ताः। छात्राः परीक्षणदिनेषु यथा समुत्का, यवैकलव्यवदारपराक्रमेण ॥ (युग्मम्)