________________
चतुर्थः सर्गः
१२५ १११. प्रक्राम्यते दीक्षयितुं ततस्तं, तातेन दृङ्गोपवने वतीन्दुः।
तस्मिस्तपस्या मुपदातुमुत्कः, स्फूर्जत्समारोहतया प्रतस्थे ।
उस लघु बालक की संयम के प्रति ऐसी दृढ़ता देख मुनि भिक्षु ने पिता-पुत्र-दोनों को दीक्षित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी और नगर के जिस उपवन में उन्हें दीक्षित करने के लिए सोचा गया था उसी उपवन में भव्य समारोह के साथ दोनों पिता-पुत्र उपस्थित हुए।
११२. कौतूहलाद् भूमितलं समेत्याऽदःपूश्छलात् स्वर्गपुरी वसन्तीम् ।
विज्ञाय पश्चात् किमिहागतं तदेतद् वनं नन्दनमैक्षि तेन ॥
वहां पर उस दृश्य को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कुतूहलवश इस पुर के मिष से मानो अमरपुरी ही यहां आकर बस गई हो और उसके पीछे-पीछे नन्दनवन भी यहां आ गया हो। ११३. क्रीडकपोतालिमयूरहंसस्कोकिलालापकलाविलासि ।
आदर्शसमे॒व वनं तदेतच्चारित्रमिच्छुः प्रविवेश शान्त्या ॥
वह उपवन क्रीडा करते हुए कपोतों, मयूरों, हंसों और पुंस्कोकिलाओं के मधुर आलापों से विलास युक्त था। ऐसे उस आदर्श गृहरूप उपवन में चारित्र के इच्छुक पिता-पुत्र ने शान्ति के साथ प्रवेश किया।
११४. शाखाग्रहस्तेष्विह सन्दधानाः, पुष्पप्रवालार्घ्यफलानि वृक्षाः।
पक्षिस्वनैः स्वागतमातिथेयमस्यातिथेश्चक्रुरुदीयं हृष्टाः ।।
उस उपवन के वृक्षों ने प्रसन्नचित्त से अपनी शाखाओं के अग्रभागरूप हाथों में पुष्प, प्रवाल तथा अर्घ्यफलों को धारण कर, पक्षियों के निनाद रूप गीतध्वनि से अतिथि का स्वागत-सत्कार किया।
११५. वन्यैर्नगः शस्यभरादरोत्कर्मन्ये विहङ्गारवकोत्तिकाव्यः ।
वातोन्नमन्नजशिरोभिरेष, एष्यव्रतीशत्वधियाभ्यवन्दि ॥
'यह भविष्य में मुनियों का स्वामी होगा, ऐसा सोचकर ही उपवन के वृक्ष फलों के भार से उसका सत्कार करने के लिये उत्सुक होते हुए तथा पक्षियों के कलरव रूप कीर्तन काव्य की रचना करते हुए एवं वायु से झुकते हुए अपने मस्तक को झुका-झुका कर नमस्कार करते हुए से दिखाई दे रहे थे।
११६. अन्वेषयन् वट्युपलक्ष्यमेकं, देवालयं तत्र ददर्श दिव्यम् ।
आराममूर्नीव जितान्यवृक्षः, क्लुप्तातपत्रं च वटं वटाढ्यम् ॥ १. तपस्या-व्रतग्रहण (तपस्या नियमस्थितिः----अभि० ११५१)