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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
इस नगर के लिए यह प्राचीन किंवदन्ती भी है कि पहले यहां 'एकचक्रा' नाम की प्रसिद्ध नगरी थी, जहां पांच पाण्डव एक बार बिना सेना-बल के साथ आये थे और इसी बालु के टीले पर बक राक्षस का वध कर भीम ने सदा के लिए शान्ति स्थापित कर दी थी ।
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उस समय वहां मेवाड में 'महाराजा पद" के अधिकार से सुशोभित बागोर नगर में आपने एक चतुर्मास अर्थात् पांचवां चतुर्मास बिताया ।
१०७. तत्रैव महाभिधदृङ्गवासी, कृष्णाजिदाभादुपकेशवंश्यः ।
वंशावतंसी तनयस्तदीयो, भव्योऽतिभव्यो वरमारिमालः ॥
१०८. सम्प्राप्तवैराग्यधियौ तदा तौ, श्रीभिक्षुपादानभिवन्द्य सद्यः । आवेदयाञ्चक्रतुरुल्लसन्तौ यच्छन्तु शीघ्रं नियमस्थिति नौ ॥
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( युग्मम् )
वहां मुंहा गांव के वासी ओसवंशीय कृष्णोजी रहते थे । वंश का मुकुट रूप उनका अतिभव्य पुत्र भारीमाल था । उस समय कृष्णोजी और भारमलजी - दोनों वैराग्यभाव से आचार्य भिक्षु के पास आए, उन्हें वंदना कर उल्लासपूर्ण वाणी से बोले - 'भंते ! आप हम दोनों को दीक्षा प्रदान करें ।'
१०९. बालो लघीयान् दशवर्षदेश्यः, पृष्टः प्रकृष्टः स सदाशयेन ।
fक राजहंसः सहजं विवेक, देवात् त्यजेत् पत्वलसङ्गतोऽपि ॥
प्रव्रज्या का इच्छुक बालक भारीमाल छोटा था । उसकी अवस्था दस वर्ष की थी । लोगों ने वैराग्य की परीक्षा करने के सद् अभिप्राय से उसे बहुविध प्रश्न पूछे । बालक विवेक से उत्तर देता रहा। मानसरोवरवासी राजहंस भाग्यवश किसी छोटे तालाब के पास आ जाए, फिर भी क्या वह अपना सहज विवेक (क्षीरनीरविवेक) छोड़ देता है ?
११०. धूर्यातिशायी व्रतभारवाहे, मन्दत्वदर्शी कथमेव स स्यात् । लालायितः संयमलालसा भिरालोकयत् स्वं द्रढिमानमेव ॥
वह बालक भी व्रतों के भार को वहन करने में धोरी वृषभ के समान था, तो फिर वह अपनी मन्दता कैसे प्रगट कर सकता था ? अत: उसने अपनी संयम साधना की तीव्र उत्कण्ठा को प्रगट करते हुए आत्म - दृढ़ता का ही परिचय दिया ।
१. 'महाराजा पद' का तात्पर्य है कि उदयपुर महाराणा के कोई सन्तान न होने पर बागोर नगर के राजकुमार को ही उदयपुर के महाराणा पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था ।