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चतुर्थः सर्गः
११७ बहुत थोड़े समय में आचार्य रघुनाथजी ने सुपात्र भिक्षु को अपनी इच्छा से सारी विद्याएं सिखा दीं। आप ग्रहण करने में अति दक्ष थे, अतः आपने गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान-सिन्धु को वैसे ही पी लिया जैसे अगस्त्यमुनि ने समुद्र को पी लिया था। ७०. कल्याणभक्तिः प्रविभक्तिसक्ति प्नक्ति भावित्वममुष्य साक्षात् ।
विज्ञापिकाऽवैयभिचारिकी वित्', कि नो परोक्षान्तरितार्थराशेः ॥
___आपकी काल्याणिक भक्ति और सेवाभावना आपके उज्ज्वल भविष्य की ही ओर संकेत कर रही थी। क्या परोक्ष एवं दूरवर्ती पदार्थों को निर्दोष ज्ञान सिद्ध नहीं करता ? ७१. एतस्य गाम्भीर्यविशालतायुग, मेधाविमौर्धन्यमवेत्य माः । अस्मिन् सदा पाटलफुल्लपुष्पे, रोलम्बमाला इव सम्भ्रमन्ति ॥
आपकी गंभीरता और विशालता से युक्त मेधाविता और मूर्धन्यता को जानकर लोग आपके पीछे-पीछे वैसे ही घूमने लगे जैसे पाटल के विकसित पुष्प पर भ्रमर मंडराते हैं।
७२. व्याख्यानविश्राणन शक्तिरस्याऽपूर्वा ततः पञ्चजनाः प्रकृष्टाः । नाम्नव निस्तन्द्रविनिद्रसभ्या, यद्देशनायां भरिता बभवः॥
आपमें व्याख्यान देने की कला अपूर्व थी। लोग आपका नाम सुनते ही आलस्य और नींद को छोड व्याख्यान-सभा-स्थल में खचाखच भर जाते थे।
७३. अग्राग्रतस्तस्य गुरोश्च शश्वत्, संवर्द्धमानं विनयं प्रसादम् ।।
आलोक्य सन्घस्य विनिविवादादसौ हि नेता भवितेति दृष्टिः ॥
___ इस प्रकार भिक्षु का गुरु के प्रति विनयभाव और गुरु का शिष्य भिक्षु के प्रति कृपाभाव को निरंतर प्रवर्धमान देखकर समूचे संघ की यह निर्विवाद धारणा बन चुकी थी कि भविष्य में यही भिक्षु इस संघ का नेता बनेगा।
७४. प्राक्पुण्यभाराद् गुरुशिष्ययोः संजातः सुयोगो बुधचन्द्रयोर्वा ।
तीर्णा वयं पारगता भवाब्धेरेवं हि सार्वत्रिकलोकवादः ॥ १. प्रविभक्तिसक्तिः-सेवाभावना । २. अव्यभिचारिकी वित्-अव्यभिचारी ज्ञान, निर्दोष ज्ञान । ३. विश्राणनं-दान (अभि० ३।५१)