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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् . .. यह लोकवाणी सर्वत्र फैल गई कि पूर्व सुकृत के संयोग से बुध और चन्द्र नक्षत्र के योग के समान यह गुरु-शिष्य का कैसा सुन्दरतम योग मिला है! इस सुयोग से हम तो इस संसार-समुद्र को तैर गए, उसके पार पहुंच गए। ७५. गम्भीरिमोदारिमभक्तिभावात्, प्रज्ञापराढयाऽनवराय 'दर्शात् । एज्यल्लसल्लक्षणया च नाथः, सङ्कल्पितः स्यादयमेव भावी ॥
आचार्य रघुनाथजी ने भी भविष्य की लक्षणा शक्ति से इस शिष्य की महान् उदारता, गम्भीरता और भक्ति भाव आदि से तथा प्रज्ञावान् व्यक्तियों में उत्कृष्ट प्रज्ञावान् देखकर सम्भवतः यह कल्पना की हो कि यही मेरा भावी उत्तराधिकारी होगा।
७६. योग्यत्वभाध्याय विशिष्टमेतं, सङ्घाटबन्धेन बबन्ध बुद्धः ।
मूर्धाभिषिक्तेन कुमारमुख्यो, नो मुद्रयते मुख्यविमुद्रया किम् ॥ ____ गुरुवर ने आपकी योग्यता देख आपको सिंघाडपति के रूप में नियुक्त कर दिया। क्या मूर्धाभिषिक्त राजा अपने प्रमुख राजकुमार को मुख्य मुद्रा से मुद्रित नहीं करता? ७७. तं स्वार्यनीवत् परिदर्शनाय, सम्प्रेषयामास विकाशकामम् ।
भूष्णुं यथा भूपतिमात्मसून, भूप: समायोजितयोजिताङ्गम् ॥
' आचार्य रघुनाथजी ने अपने विकासेच्छुक शिष्य भिक्षु को आर्यदेश दर्शन के लिए भेजा । उन्होंने पृथक् विहार करने का वैसे ही आदेश दिया जैसे राजा भविष्य में राजा बनने वाले अपने राजकुमार को नाना प्रकार की योजनाओं में नियोजित करता रहता है। ७८. भास्वत्प्रभाचक्रवदेष तेन, सम्बन्धितोऽपि प्रतिबन्धमुक्तः । रंरम्यमाणो रमणीयरम्यो, लेभे प्रतिष्ठां जनतासु तासु ॥
सूर्य से संबंधित होता हुआ भी सूर्य का प्रभा-चक्र सर्वत्र स्वतन्त्र रहता है, वैसे ही गुरु से सम्बन्धित होते हुए भी अत्यंत मनभावक मुनि भिक्षु प्रतिबन्ध-मुक्त होकर विहरण करते हुए लोगों में प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहे।
७९ संश्रुत्य संश्रुत्य ककब निकुञ्जकुक्षिम्भरिश्लोकममुष्य दूरात् ।
धाराहतोत्फुल्लकदम्बपुष्पस्मेरानन: सङ्घपति: ससङ्घः ॥ १ अनवराय॑म् - मुख्य, प्रधान (अभि० ६।७५) २. सु+आर्य+नीवृत्-आर्यदेश (देशो जनपदो नीवृत्-अभि० ४।१३) ३. ककुप् - दिशा (दिग् हरित् ककुप्-'अभि० २।८०)