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चतुर्थः सर्गः
११९ समस्त संघ और स्वयं संघपति भी दिग-निकुञ्ज को परिपूर्ण कर देने वाले आपके यशोगान को दूर से सुन-सुन कर वैसे ही प्रफुल्लित होने लगे जैसे कि मेघ-धारा से प्रफुल्लित कदम्ब का पुष्प । ८०. पार्वे कदाचिच्च पृथक् कदाचित, संरक्षयन् तं परिवर्त्तमानः ।
श्रेष्ठी यथा लाभकरं विनीतं, व्यापारदक्षं स्वसुतं प्रवासे ॥ ___ आचार्यश्री मुनि भिक्षु का संरक्षण करते हुए कभी उनको पास में रखते और कभी पृथक् प्रवास में वैसे ही भेज देते जैसे श्रेष्ठी अपने कमाऊ, विनीत और व्यापार-निपुण पुत्र को प्रवास में भेजता है । ८१. तत्सद्यशोऽनर्गल'डिण्डिमेन, साकं निजायं निरपायमेत्य । आलोचि नाथेन वसुन्धरायामुक्षूसितं नाम ममैव तेन ॥
उनके निर्बाध यशोगान के साथ-साथ अपनी भी प्रशस्त ख्याति को बढ़ते देखकर संघपति ने सोचा कि मुनि भिक्षु ने वास्तव में मेरा ही नाम चमकाया है। ८२. इत्थं द्वयोर्दैष्टिकताऽतिवाहो, गच्छन् मिथी माधुरिमोद्धरीणः।
दिङ्मूढयोरिङ्गितयोर्यथैव, न्यक्षक्रियाकाण्डवतोः सतोहि ॥ ___ इस प्रकार दोनों-गुरु-शिष्य का भाग्यशाली समय निर्बाध मधुरिमा के साथ बीत रहा था। दोनों एक-दूसरे के अनुरूप वैसी ही क्रिया करने लगे जैसे कि दो दिग्मूढ व्यक्ति एक-दूसरे के इंगित और आकार को समझकर करते हैं। ८३. शेषावशेषास्थितयोऽपि भिन्ना, निर्मीयमाणेन तथाविधेन । एतच्चरित्राधिविनायकेन, विद्योतितो छोतितसम्प्रदायः॥
ऐसे चातुर्मासिक तथा शेषकालिक स्थिति को अन्यत्र बिताते हुए चरित्रनायक भिक्षु ने इस दीप्त सम्प्रदाय को और भी अधिक दीप्तिमान् बना दिया। ५४. अस्यादिमोयं खलु मेघकालः, प्रावर्त्तताऽऽनन्दितमेडतायाम् । श्रीसोजतेऽजायत कान्तकीा , प्रीत्या जनानां रभसाद द्वितीयः॥
आपका पहला पावस-प्रवास (चातुर्मास) मेडता में आनन्दपूर्वक संपन्न हुआ। आपकी कान्त कीर्ति से प्रभावित होकर जनता ने आपका दूसरा चतुर्मास अत्यंत भक्तिपूर्वक सोजत में करवाया। १. अनर्गलम् -अबाध (अनियंत्रितमनर्गलम्-अभि० ६।१०२) २. दैष्टिकता--भाग्यशालिता।