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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् अपने रूप, लावण्य आदि गुणों से दिव्य अप्सराओं पर भी विजय पाने बाली कुमारियां मानो देवलोक से उतरकर इस मृत्युलोक में आ गई हों, ऐसी अपनी कुलीन कन्याओं के साथ विवाह करने के लिए प्रतिष्ठित लोग कुशल कुमार भिक्षु से प्रार्थना करने लगे। २६. परं विमुक्तिन विमुञ्चते तं, यथा दिनश्रीगंगनाधिनाथम् । न सेवते तं विषयाभिसक्तिर्यथा तम:श्रीः सवितुः प्रदेशम् ॥
ऐसी स्थिति में भी वैराग्य भावना उनसे वैसे ही दूर नहीं हुई जैसे दिन की सुषमा सूर्य से और विषयासक्ति उनको वैसे ही स्पर्श न कर सकी जैसे निबिड़ अन्धकार की छाया सूर्य के प्रदेश को।
२७. विलक्षणत्वं स्वतनूद्भवस्य, निर्वर्ण्य दीपाऽथ परिप्लुताक्षी । प्रोचे कथं मे सुमनोभिलाषान्, पुपूर्षितुं त्वं विपरीतचेष्टः ।।
आंसुओं से छलाछल भरी आंखों से माता दीपां ने अपने लाल की ऐसी विलक्षण दशा देखकर गद्गद वाणी में कहा---'अरे वत्स ! मेरी मनोकामना की पूर्ति के विपरीत तेरी चेष्टाएं क्यों हो रही हैं ?'
२८. धन्या हि रामा जगतां सुपुत्रा, ततोऽपि धन्या स्नुषयाभिरामा । विना जनी कि गृहमेधिगेहो, यत्सन्ततीच्छुः सुगतोऽपि तन्त्रे॥
'अरे वत्स ! इस विश्व में पुत्रवती स्त्रियां ही धन्य हैं और वे और अधिक धन्य हैं जो पुत्रवधूयुक्त हैं। वह गृहस्थ का घर ही क्या जो सन्तान रहित हो ? देख, क्षणिकवाद को मानने वाला बौद्ध दर्शन भी तो संतति को स्वीकार करता है।'
२९. श्रुतं न कि शान्तिप्रभोश्चरित्रं, नैश्चिन्त्यकामोपि स षोडशोऽर्हन् । मातुः प्रसत्त्यै' कृतदारकर्मा, तथा मुदे मे परिवर्तयध्वम् ।
'अरे वत्स ! क्या तुने शान्तिनाथ भगवान का जीवनवृत्त नहीं सुना, जिन्होंने केवल माता को प्रसन्न करने के लिए विवाह करना स्वीकार किया था ? अतः वैसे ही तू भी मेरी प्रसन्नता के लिए विचार को बदल कर विवाह करना स्वीकार कर ।' ३०. प्रसूप्रमोहात् सुतरां विलेसे, गार्हस्थ्यवासश्चरमाहताऽपि ।
स्वमौलिपर्यङ्कविलासयोग्यामतो ममाज्ञां तनुताद् विनीत !॥
१. प्रसत्तिः - प्रसन्नता।