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तृतीयः सर्गः
सिंह-स्वप्न की चर्चा सुनते ही मेघघोष से आनन्द विभोर हो उठने वाले मयूर की तरह ही आचार्य प्रमुदित हो उठे और प्रतिध्वनित होने वाले उच्च स्वर में बोले
६३. न बुध्यसे स्निग्धविदग्धमुग्धे !, किमस्ति साम्राज्यविराजिराज्ये । नरेन्द्रलीला' नरकात्तिकीला', नरेश्वरत्वं नरकेश्वरत्वम् ॥
'हे भोली बहिन ! तुम नहीं जानती। साम्राज्य से शोभित राज्य में है क्या ? राज्यलीला नारकीय दुःखों की ज्वाला है और राजेश्वरत्व नरकेश्वरत्व है।'
६४. सुभूमयद्वादशचक्रवर्तिचरित्रमश्रावि न कि कदाऽपि । यतश्चिकीर्षुस्तनयं तथात्वमनन्तरङ्ग किमु ते प्रियत्वम् ॥ .
'क्या तुमने कभी सुभूम एवं ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का जीवन चरित्र नहीं सुना ? वे विशाल साम्राज्य का उपभोग कर सातवीं नरक में गए। यदि तुम भी अपने पुत्र को वैसा ही बनाना चाहती हो तो कहां है उसके प्रति तुम्हारी अंतरंग प्रियता ?'
६५. भवेच्चयैर्यैरगुणैरपीव, सुधर्मराज्यं यमराजराज्यम् ।
सदैव तैस्तै रणभीछलाद्यैर्भूतं प्रभुत्वं हि किमामीप्सुः ॥
'ऐहिक प्रभुत्व संग्राम, भय, छल आदि दोषों से भरा पड़ा है। ऐसे प्रभुत्व की तुम क्यों कामना कर रही हो? ऐसे अवगुणों के चय से तो धर्मराज का राज्य भी यमराज का राज्य बन जाता है।'
६६. क्षमास्पृशद्भिर्महितः क्षमेन्द्रः, क्षमेन्द्रनाथ रथवा क्षमायाम् । त्रिलोकचूडामणिचितांहिर्मनोभिभक्त्या श्रमणस्तु नित्यम् ।
'बहिन ! राजा तो केवल अपनी प्रजा से ही पूजा जाता है और चक्रवर्ती अपने अधीनस्थ राजाओं से, परंतु श्रमण तीन लोक के पुरुषपुंगवों द्वारा सदा हार्दिक भक्ति से पूजा जाता है।' ६७. महोच्चसत्स्वप्नफलं किमेतत्, क्षणं च जालीय जगत्प्रभुत्वम् ।
प्रदर्श्य लक्ष्मीमिव शाम्बरीयां', चिरादधोधः प्रतिपातयेद् यत् ।।
१. लीला-विलास । २. कीला-ज्वाला (हेतिः कीला शिखा ज्वाला-अभि० ४।१६८) . ३. जालीय""-इन्द्रजालीय। ४. शाम्बरी-माया (माया तु शाम्बरी-अभि० ३।५८९) .