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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
'हे माता ! पुनः पुनः भव-भ्रमण करने वाला यह मैं संयम को ग्रहण कर प्राणीमात्र को अभयदान देता हुआ संयम के द्वारा भवसमुद्र का शोषण कर अपुनर्भवी सिद्धों के महानन्द वाले महान् सोध का अतिथि बनना चाहता
१०७. मनो मनोहत्य पृथुप्रयासे, कृते कणीयस्तमचञ्चलत्वम् ।
इतं न च प्राह तदाम्बकाऽम्बुरसोद्भवस्त्रविरचय्यमाना ॥
माता द्वारा विपुल प्रयास किये जाने पर भी उनका मन वैराग्य से रेखामात्र भी इतस्तत: नहीं हुआ, तब अपनी आंखों से आंसू बहाती हुई मां दीपां अपने लाल की ओर देख पुनः बोली
१०८. अतूलनीशार वराशि मञ्चहसन्तिका दीपविकाशवासः ।
कथं हिमर्तुं व्ययिताऽहिमेलु रसैन्यसेनापतिवत् सपत्नान् ॥
_ 'वत्स ! बिना सेना का सेनापति जैसे शत्रु-शासक पर विजय नहीं पा सकता, ठीक वैसे ही शीत को सहन न कर सकने वाले तुम तूल की रजाई, पल्यंक, सिरख, अंगीठी आदि के बिना तथा दीप-प्रकाश रहित घर के बिना हिम ऋतु को कैसे बिता पाओगे।'
१०९. विनाऽऽप्लवं' चीवरधावनं च, सुगन्धमाल्यं व्यजनानिलं त्वम् ।
तितीर्षुरुष्णं खरलूसमीरं, कथं पयोधि तरणीमिवोत्कः ॥
'नौका के बिना नहीं तैरे जा सकने वाले समुद्र की तरह ही तुम स्नान, वस्त्रप्रक्षालन, सुगन्धितमाला और पंखे आदि की हवा के बिना तेज लू के उष्ण पवन वाले इस ग्रीष्म ऋतु को कैसे पार कर सकोगे ?' ११०. रते: पतेः क्रीडितुमालया वा, घन घना: सुविलासयोग्याः।
पवित्रसंगीतमहत्त्वगोष्ठीते त्वया ते कथमेव वाह्याः ।।
'अरे पुत्र ! कामदेव की क्रीडास्थली के समान ये वर्षावास के दिन विलासोपयोगी माने जाते हैं। ऐसे वर्षा ऋतु के दिनों को तुम पुनीत संगीत तथा महोत्सव आदि की गोष्ठियों के बिना कैसे बिताओगे ?' १. नीशार:--रजाई (नीशारो हिमवातापहांशुके–अभि० ३।३३९) २. वराशि:--- सिरख (वराशिः स्थूलशाट: स्यात्-अभि० ३।३३६) ३. हसन्तिका--अंगीठी (अभि० ४।८६) ४. अहिमेलु:-शीत को सहन न करने वाला-हिमं सहमानः हिमेलुः, न . सहमानः अहिमेलुः । ५. आप्लव:-स्नान (स्नानं सवनमाप्लवः---अभि० ३१३०२)