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तृतीयः सर्गः
'मूढ मनुष्य सदा वैषयिक सुख को अमृत की तरह मानकर उसका आस्वादन करने के लिए प्रवृत्त होते हैं, किन्तु अन्त में उसका परिणाम वैसे ही अनिष्टकारी होता है जैसे कि नीच व्यक्ति का संसर्ग अन्ततः बुरा ही होता है।' १२२. विलोभ्यमानोऽपि गृहालवालाद्', विरक्तितो निष्क्रमणाभिलाषी ।
सरोम्बुपङ्कादिव पुण्डरीको, भव व्रती त्वामनुशास्मि सम्यक् ।।
'हे वत्स ! कीचड़ से पैदा होने वाला पङ्कज पानी और कीचड़ से सदा निलिप्त रहता है, वैसे ही इतने प्रलोभन दिये जाने पर भी तुम इस गृहवास रूपी आलवाल- 'थाले' से विरक्त ही रहे और दीक्षा के लिये लालायित भी। अतः अब मैं तुम्हें हृदय से आज्ञा देती हूं कि वत्स ! तुम साधना-पथ के पथिक बनो, संयम ग्रहण करो।'
१२३. शिवस्य संदेशमिवाऽतिभव्यं, तदा तदालापसुधारसं सः।
निपीय पुष्टाच्छ तिपत्रपात्रादमाप्यमोदं समवाप हृद्यम् ॥ ___ मोक्ष-संदेश के समान अपनी माता का साधना पथ के लिये अतिभव्य संदेश पाकर और उसके आलाप-संलाप रूप अमृत को पुष्ट कर्णपुटों से पीकर भिक्षु परमानंद को प्राप्त हुए । १२४. अनुज्ञयाऽङ्गे पुलकच्छलात् किं, प्रमेदुरोद्वेलितहर्ष सिन्धौ।
शिशुत्वशालाः शफराः समन्तात्, स्फुरन्त्यमी लोलतरास्तरन्तः॥
दीक्षा के लिये माता की आज्ञा पाकर उनका सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठा और उनके वे रोमाङकुर खड़े ही नहीं हुए अपितु ऐसा लग रहा था कि मानो उनके उस उछलते हुए हर्षसमुद्र में ये चारो ओर छोटी छोटी चपल मछलियां ही तैर रही हैं ! १२५. सरस्वती तां जननीप्रयुक्तां, समादधे सारसमाधियुक्तः ।
गुरोर्गुणाचारविशुद्धबुद्धेहिताञ्चितां शक्षकवत् स शिक्षाम् ॥
श्रेष्ठ समाधियुक्त भिक्षु ने अपनी माता की शिक्षा को आदरभाव से वैसे ही स्वीकार किया जैसे एक विनीत शैक्ष मुनि आचार-संपन्न ज्ञानी गुरु की हितकारिणी शिक्षा को स्वीकार करता है।
१. आलवालः–थाला, वृक्ष के चारों ओर पानी ठहरने के लिए बनी पाल (स्यादालवालमावालमावाप:--अभि० ४।१६१)