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चतुर्यः सर्ग:
१०५ अभिमान के पर्वत-शिखर पर स्थित कल्पवृक्षों का मानभंग करने के लिए व्यक्तियों ने भिक्ष को यथेष्ट फल देने वाला जानकर दिव्य स्वर्णजटित मुक्ता-मणियों के आभूषणों से अलंकृत किया।
११. यस्याऽयं मौलौ कलधौत सूत्रव्याजादसात्वमपोह्य हृष्ट: ।
कृष्टात्मरश्मिवजपद्मबन्धुः, कौसुम्भवेषी शुशुभे स्वयं हि ॥
___ अपने असह्य ताप को दूर कर, अपनी समस्त रश्मियों का संहरण कर सूर्य स्वयं स्वर्णसूत्र के बहाने कुसुम्भवेश धारण कर उनके मूल्यवान् मस्तक पर सुशोभित होने लगा।
१२. यद्गोधि'पुण्ड्रो पधितः स्वताराः, सम्प्रेष्य दीक्षाक्षणसम्भ्रमोत्कः। एवं हि घरेऽपि शशी स्वरुच्या, शुक्लाम्बरोऽयं स्वयमम्बरस्थः ॥
उनके भाल पटल पर तारों का किया हुआ तिलक ऐसा लग रहा था मानो कि दीक्षा महोत्सव को देखने के लिए लालायित चन्द्रमा ने तिलक के मिष से अपने तारागण को ही वहां भेज दिया हो और अपनी रुचि से श्वेत कपड़ों को धारण कर स्वयं दिन में आकाश में ठहर गया हो।
१३. भालाम्बरे चन्दनचन्द्रबिन्दुः, पोस्फूर्यमाणः प्रतिभाति भव्यः । पाषण्डखण्डार्थमिमं हि मन्ये, भ्राजिष्णुजिष्णो रिपुजिष्णुचक्रम् ॥
पाखंड का नाश करने के लिए, देदीप्यमान वासुदेव के सुदर्शन चक्र की तरह, उनके भालस्थल पर किया हुआ चन्दन का गोल चन्द्रोपम बिन्दु अत्यन्त रमणीय प्रतीत हो रहा था। १४. भ्रूसन्निधौ वृत्ततमालपत्रं', मन्यामहे स्वान्तभुवं भटोऽयम् । हन्तुं स्वनासानलिकाप्रयोगात्, संस्थापितेयं गुलिकेव येन ॥
उनके भ्रूमध्य भाग पर अंकित तिलकरूप बिन्दु ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो कामदेव रूप महान् योद्धा का नाश करने के लिए अपनी नासिका-रूप बन्दूक की नलिका पर गोली ही धर दी हो।
१५. कर्णाश्रिताभ्यां प्रभया लसद्भ्यां, गण्डद्वये बिम्बितकुण्डलाभ्याम् ।
भेत्तुं कषायांश्चतुरोऽपि येन, चत्वारि चक्राणि किमाश्रितानि ॥ १. कलधौतः-स्वर्ण । २. पद्मबन्धुः-सूर्य । ३. गोधिः--ललाट (भाले गोध्यलिकालीकललाटानि-अभि० २।२३७) ४. पुण्ड्रम्-तिलक (तिलके तमालपत्रचित्रपुण्ड्रविशेषका:-अभि० ३।३१७) ५. तमालपत्रं-तिलक ।