________________
१०४
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् __कुछ नागरिकों ने उन्हें उच्च और पवित्र स्नान कराने की चौकी पर बिठाकर सुरभित जल से भरे हुए उत्तम कलशों से उनका वैसे ही दीक्षाभिषेक किया जैसे कि सुर-समुदाय तीर्थंकर देव का अभिषेक करता है।
६. अस्यालयत्यागसमं हि नः किं, मुक्तिः प्रबन्धादिति मौलिकेशाः । स्नानोदबिन्दुव्यपदेशतस्ते, हर्षाश्रुपातं युगपद् वितेनुः ॥
इनके गह-त्याग के साथ साथ हमें भी मुक्ति मिल जायेगी ऐसा सोचकर ही मानो इनके मस्तक के केश स्नानोदक के बिन्दुओं के मिष से हर्ष के आंसू बहाने लगे।
७. उच्चैः प्रणुन्न प्रतियात्यऽधोऽधस्तादृग जडेनाऽलममुष्य सङ्गात् । प्रारुक्षयन् केऽपि तदङ्गभागात, सौगन्धिसौमालविशालवस्त्रैः ॥
यह जड जल ऊंचा उठाया जाने पर भी नीचे ही गिरता है। ऐसे जड का संसर्ग इस पुरुषोत्तम के लिए उपयुक्त नहीं, यह सोचकर ही मानो उन लोगों ने सुगन्धित एवं सुकोमल बड़े वस्त्र से उनके शरीर को पौंछ दिया।
८. एतस्य वैराग्यवतोभिषङ्गात्, कि तादृशः स्नानजलप्रवाहः । यस्माद्धि सत्त्वान् परिवर्जयन् स, गत्वैव शीघ्रं श्रयते भवान्तम् ॥
ऐसे वैरागी का सम्पर्क करने मात्र से मानो वह जल-प्रवाह स्वयं ही विरागी बन गया और वह अपने प्रवाह के बीच में आने वाले प्राणियों को जलप्लावित न करता हुआ, बहते-बहते वहीं पर भवान्त को प्राप्त हो गया, सूख गया।
९. नानासुवर्णांशुकवेषभूषाप्राश्वद्धरिद्रत्नयदङ्गभागान् । मोक्षक्षणे वा पितृसू'विरागः, प्रद्योतयन् पौष्करिकप्रतीकान् ॥
नाना प्रकार के स्वर्ण-आभरणों और वस्त्रों की वेषभूषा से उनका नीलमणि के समान अङ्ग वैसे ही उद्दीप्त होने लगा जैसे सूर्यास्त के समय संध्या-राग से कमलों की पंखुडियां । १०. गर्वाद्रिशृङ्गस्थितकल्पवृक्षान्, सम्पातुकैः कैश्चन दिव्यदिव्यः ।
स्वर्णाक्तमुक्तामणिमण्डनाद्यः, शृङ्गारितोऽभीष्टफलप्रदो यः॥
१. पितृसूः-संध्या (सन्ध्या तु पितृसूः-अभि० २।५४) २. प्रतीकः-अंग (एकदेशे प्रतीकोऽङ्गावयवापघना अपि-अभि० ३।२३०)