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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'संसार के कारागृह में रहने वाले बंदी क्या असंख्य कष्टों को सहन नहीं करते ? तब चिदानन्द के प्रदाता चारित्र के लिए यदि प्रगाढ दुःखों को सहना भी पड़े तो इसमें कैसा अनुताप ?' ९७. विपश्चिमैस्तीर्थकरघ्रदिष्ठेरुदीर्य सोढा न परीषहाः किम् ? कियत् तितिक्षुर्गजसौकुमारस्तदा क्व चाऽहं क्व च मार्दवं मे ?
'सुकुमार शरीर को धारण करने वाले अंतिम तीर्थंकर महावीर ने क्या उग्र परीषहों की उदीरणा कर उनको नहीं सहा था ? मुनि गजसुकुमार कितने सहनशील थे ? मां ! इन सबके समक्ष कहां मैं और कहां मेरी कोमलता?'
९८. यशोथकामो विषमाद्रिशृङ्ग, विगाहमानोऽपि न शङ्कमानः । तदेर्ययाऽऽर्य क्षितिचक्रमाहः, कथं न वर्ते स्वपरोपकृत्यं ॥
'अम्ब ! यश, अर्थ और काम की प्राप्ति के लिये अनेक पर्वतारोही पर्वतों के उत्तुंग शिखरों पर निःशंक होकर चढते हैं तो क्या ईर्यासमितिपूर्वक मैं इस आर्यभूमि में स्व-पर हित के लिये विहार नहीं कर सकता ?'
९९. भुजङ्गनिर्मोकविमुक्तमानः, सुसिंहवृत्त्या भ्रमरोपमित्या ।
अनो'जनवातिकयात्रिकी तां, न गोचरी कर्तुमहं श्रमामि ॥ ___ 'माताजी ! जैसे सर्प केंचुली को छोड़ देता है वैसे ही मैं भी मान को छोड़ दूंगा। गाड़ी के अभ्यंगन की तरह संयम-यात्रा के निर्वाह के लिये सिंहवृत्तिपूर्वक माधुकरी वृत्ति से भिक्षा करते हुए श्रम और लज्जा की अनुभूति नहीं करूंगा।' १००. अमित्रसंदोह इवानिशं ये, धरन्ति कृष्णत्वमनार्जवं च ।
भटाग्रणी तान् किमिवोच्छिनत्ति, महोदयार्थी श्रमणो न केशान् ॥
'अनवरत कुटिलता और कलुषता को धारण करने वाले शत्रु-समूह का जैसे वीर शिरोमणी उच्छेद कर डालता है वैसे ही क्या मोक्षार्थी महाभट श्रमण अन्तर् में कुटिलता एवं कृष्णता को धारण करने वाले केशों का लुञ्चन नहीं कर देगा ?' १०१. न विग्रहे ये शमिनः सयत्ना, यथा हि देवे ननु जैमनीयाः ।
प्रयच्छति क्षेत्रमिदं विकृष्टं, तपोनसीरेण विमुक्तिसस्यम् ॥ १. अन:-शकट (अनस्तु शकटो...--.अभि० ३।४१७) २. सीर:-हल (सीरस्तु लाङ्गलम्-अभि० ३३५५४)