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द्वितीयः सर्गः
४१. स्वर्गं शिवं हैमगिरि विशोध्य किं वा स्वयं पावयितुं पवित्रा । अवातरन्नोद्यपुरं समग्रं गङ्गा सरङ्गा त्विति मर्त्यघोषः ॥
स्वर्ग, महादेव और हिमालय को पवित्र कर क्या यह पवित्र तरंगवती गंगा स्वयं अपने पुर को पवित्र करने के लिए ही यहां अवतरित हुई है ? यह बात नववधू के लिए लोग कहने लगे ।
४२. सौजन्यसारैरभिवन्द्यमाना,
नारीसहस्रैरभिनन्द्यमाना ।
पदे पदे सा परिपृच्छ्यमाना, प्रीत्या नितान्तं परिवृत्त्यमाना ॥
वह दीपां की पुत्रवधू अपने महान् सौजन्य से अभिवन्दित तथा सहस्रों स्त्रियों से अभिनन्दित हो रही थी । स्थान-स्थान पर इसकी शुभ चर्चाएं चलती रहती और पौरस्त्रियां निरंतर प्रेम से इसे घेरे रहती थीं ।
४३. किं विद्युता सा क्षणिकप्रसंगी, लक्ष्म्यापि कि सा च पुराणपत्नी । कि ज्योत्स्ना सा सकलङ्क लग्ना, कयोपमेयोत्तमभिक्षुकान्ता ? ॥
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क्या मैं भिक्षुकांता को विद्युत् से उपमित करूं ? नहीं, विद्युत् तो क्षणिक है । क्या उसे लक्ष्मी से उपमित करूं ? नहीं, लक्ष्मी तो पुराणपुरुष (विष्णु) की पत्नी है । क्या उसे चन्द्रिका से उपमित करूं ? नहीं, चन्द्रिका तो कलंकी चन्द्र की अनुगामिनी है। तो फिर किस उपमा से उपमित करूं उसे ?
४४. यशस्विनी लोकपथे यथैव, तथैव
लोकोत्तरनैगमेऽपि ।
सा चातुरी भाग्यदशा च संव, साऽऽलोकलोकद्वयसाधनी या ॥
जैसे वह इस लोकमार्ग में यशस्विनी थी, वैसे ही लोकोत्तर मार्ग में भी यशस्विनी थी । वास्तव में वही चातुरी एवं भाग्यदशा है जो आलोकयुक्त होकर लौकिक और लोकांत्तर दोनों ही लोकों की आराधना में संलग्न रहती है ।
४५. दाम्पत्यजन्माऽपि सुखोपगूढं न किन्तु मूढं न च दिग्विमूढम् । निर्वर्ण्य यत् किं त्रपया हरीशा' वादाय तो क्वापि मुखं निलीनौ ||
वे दाम्पत्य जीवन का सुखपूर्वक निर्वाह कर रहे थे । मूढ ही थे और न दिग्-विमूढ ही । ऐसा देखकर विष्णु और मानो लज्जावश अपना मुंह लेकर कहीं छुप गए ।
१. हरीशी - विष्णु और शिव ।
पर वे न इसमें शिव —दोनों