________________
द्वितीयः सर्गः
'अरे विनयिन् ! माता की प्रेरणा से प्रेरित होकर ही तो भगवान् महावीर ने गृहधर्म स्वीकार किया था, अत: तू भी मेरी आज्ञा शिरोधार्य कर।'
३१. इन्द्रजिनेन्द्राश्रितबुद्धतत्त्वैः, सीमज्ञविज्ञातजगत्स्वरूपः । ___ शालीनबद्धाञ्जलिप्राञ्जलश्च, स्वजीतवृत्ताचरणानुसारैः॥ ३२. पराङ्गनादुर्व्यभिचारहृत्य, जनप्रतीत्य व्यसनापकृत्यै ।
कुलीनसन्तानपरम्पराप्त्य, ययुग्मधर्मस्य प्रथाऽपसृत्य ।। ३३. मात्रोः प्रसत्य कृतकर्मभुक्त्यै, लोकाध्वनीतिव्यवहारवृत्त्यै । चतुर्थवर्गाय परायणोऽपि, सम्प्रेरितो नाभिसुतो यदर्थम् ।।
(त्रिभिविशेषकम्) 'आप्त पुरुषों की उपासना से प्राप्त तत्त्वज्ञान वाले, मर्यादाओं के मर्मज्ञ, जगत् स्वरूप को समझने वाले शकेन्द्र ने अपने जीताचार के अनुसार शिष्टतायुक्त करबद्ध हो, अति सरल भाव से मोक्षार्थी आदिनाथ भगवान् को, पराङ्गना के व्यभिचार से बचने के लिए, जनप्रतीति के लिए, व्यसनों से दूर रहने के लिए, कुलीन सन्तति-परम्परा के लिए, युगल धर्म की निवृत्ति के लिए, माता को प्रसन्न करने के लिए, अपने कृतकर्मों को भोगने के लिए तथा लोक-व्यवहार को चलाने के लिए, विवाह की प्रेरणा दी थी।'
३४. तत: स्वकमहिक निर्जराथ, युगादिनाथोऽपि विवाहितोऽभूत् । ततोऽतिरिक्तो न हि नन्दन ! त्वमलं विकल्पैः कुरु मत्प्रियं तत् ।।
'इन्द्र के द्वारा प्रेरित होकर ऐहिक कर्मों का निरण करने के लिए आदिनाथ भगवान ने भी जब विवाह कर लिया तो तू नन्दन ! उनसे बढ़कर तो नहीं है। अतः सब विकल्पों को छोड़ कर जो मुझं प्रिय हो, तू वैसा ही कर।'
३५ एतादर्शः सद्विनयाञ्चितानयर्लङध्यमेतन्निजमातवाक्यम् । मोहानुरागो न दुरन्त एव, दुर्लक्ष्य एषोऽपि विवेचकोच्चैः ॥
अपनी माता के ऐसे मोहाभिषिक्त वचनों को ठुकरा देना उस जैसे विनयी पुत्र के लिए कैसे सम्भव हो सकता था ? क्योंकि इस मोहराग का अन्त पाना दुःखप्रद ही नहीं है, किन्तु बड़े-बड़े ज्ञानियों के लिए इसको पहचान पाना भी कठिन है।