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द्वितीयः सर्गः ६१. ध्रुवं विना नो जलधेः स्वपोतं, निर्यामकस्तारयितुं समर्थः। __तथा हिरुक'च्छुद्धगुरोर्न नेयं, सत्यं शिवं सुन्दरमात्मसौख्यम् ॥
ध्रुव नक्षत्र को देखे बिना निर्यामक अपनी जहाज (नौका) को समुद्र के पार नहीं ले जा सकता, वैसे ही सद्गुरु के बिना सत्यं, शिवं, सुन्दरं की उपमा से उपमित होने वाले आत्मसुखों को कोई भी नहीं पा सकता।
६२. परम्पराभिः परिसेव्यमाना गच्छाधिवासा यतयः प्रयत्नात् । अन्वीक्षितास्तेन ततो न तृप्तः, क्षतव्रतांस्तांस्त्वरितं मुमोच ॥
ऐसा सोचकर आपने अपनी कुल परम्परा से चले आ रहे यति गुरुओं की ओर देखा, पर उनकी आचारक्रिया से आपको आत्मतोष नहीं हुआ और उन्हें शिथिलाचारी मान कर छोड़ दिया।
६३. श्रुतास्तदात्वे परितः स्वनाम्ना, ये पोतियाबन्ध इति प्रसिद्धाः।
घरेपि वस्त्रेण निजं च मौलि, संवेष्टय वृत्त्यै च परिभ्रमन्ति ॥ ६४. श्रद्धा हि तेषां न हि वर्ततेऽद्य, सामायिको वा न च संयमोऽपि । तत्र प्रयातो न तुतोष किञ्चिदाचारशैथिल्यपरान जहार ॥
(युग्मम्) उस समय उन्होंने सुना--- 'पोतियाबन्ध' नामक एक सम्प्रदाय विशेष भी है जिसके अनुयायी दिन में भी वस्त्र को मस्तक पर लपेटकर गोचरी आदि के लिए घूमते हैं। उनकी ऐसी मान्यता थी कि इस समय न तो सामायिक ही हो सकता है और न संयम की आराधना ही। ऐसे पोतियाबन्ध साधुओं के साथ भी आपने सम्पर्क जोड़ा, परन्तु यतियों की तरह ही उन्हें आचार-शिथिल जानकर उनसे भी अपना सम्पर्क तोड़ दिया।
६५. मतानि यावन्ति वसुन्धरायां, जैनान्यजनानि च यानि कानि । विगा हितानि श्रित शुद्धबुद्धया, परन्तु शून्यानि जहाँ विवेकः।।
सच्चे सद्गुरु की खोज करने के लिए आपने अनेक जैन, जैनेतर सम्प्रदायों से सम्पर्क जोड़ा, पर आपको प्राय: उन सबमें आचार-शिथिलता का ही दर्शन हुआ, अतः आपने उनमें से किसी को भी उचित एवं ग्राह्य नहीं माना।
१. हिरुक् ---विना (हिरुक् नाना पृथक् विना-अभि० ६।१६३) २. तदात्वम् -उस समय (तत्कालस्तु तदात्वं स्यात्-अभि० २।७६)